Subscribe Us

उठे उसे पर उंगलियां अगर



*अंजनी कुमार


वह जागता है सीमाओं पर 

इसलिए मैं घर पर सो पाता हूँ

उठे उसे पर उंगलियां अगर 

फिर कैसे मैं चुप रह जाता हूँ?

मैं अपनों से जुझ तक नहीं पाता 

और वह अनजानों से लड़ लेता है

न धूप की गर्मी उसे कभी सताए

हर तूफान भी वह हंस कर सह लेता है

मैं प्यास बुझाऊं शीतल पेय और मदिरा से

और वहां वो सदा खून का प्यासा रहता है

हर सुबह शाम कैसे बिना उसकी फिक्र किए

मैं अपनो संग चाय-काफी पी लेता हूँ

वह जागता है सीमाओं पर 

इसलिए मैं घर पर सो पाता हूँ

उठे उस पर उंगलियां अगर 

फिर कैसे मैं चुप रह जाता हूँ?

परिवार संग रहकर भी, 

हैरान-परेशान रहता हूँ मैं

और वह अपनो की यादों में खो कर भी

पूरी इमानदारी से अपना फर्ज निभाता है

मर्दानगी दिखाता है वह सीमा पर अक्सर

मैं केवल मर्द पुकारा जाता हूँ

उस सच्चे देशभक्त की फिक्र किए बिना

कैसे मैं सो जाता हूँ

वह जागता है सीमाओं पर 

इसलिए मैं घर पर सो पाता हूँ

उठे उस पर उंगलियां अगर 

फिर कैसे मैं चुप रह जाता हूँ?

*जमशेदपुर, झारखण्ड

 


अपने विचार/रचना आप भी हमें मेल कर सकते है- shabdpravah.ujjain@gmail.com पर।


साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/रचनाएँ/समाचार अब नये वेब पोर्टल  शाश्वत सृजन पर देखेhttp://shashwatsrijan.com


यूटूयुब चैनल देखें और सब्सक्राइब करे- https://www.youtube.com/channel/UCpRyX9VM7WEY39QytlBjZiw 



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ