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उभरते साहित्यकार का स्थापित साहित्यकारों से मिलन 



*कारुलाल जमडा़ 


सरस्वती के साधक सरस्वतीचंद अब खुद को भी शहर केे साहित्यकारों की बिरादरी में शामिल कर चुके थे! कभी-कभी देश-प्रदेश के समाचार पत्रों में उनकी रचनायें छप जाया करती थी! पैसों का जुगाड़ करके एक काव्यसंग्रह भी प्रकाशित करवा चुके थे! पिछले साल  क्षेत्र-विशेष में चर्चित एक-दो पुरस्कार भी उनकी साहित्यिक झोली में आ गये थे! आज सरस्वतीचंद जी के पास प्रदेश की राजधानी में एक बडी़ संस्था द्वारा आयोजित कार्यशाला में कविता पढ़ने का बुलावा आया था! बडे़ उत्साह के साथ वे आयोजन स्थल पर पहुंचे थे! परन्तु अपने क्षेत्र का कोई भी वहाँ नज़र नहीं आया! हाँ ,कुछ फेसबुक मित्र ज़रुर थे जिन्हें मिलकर वे खासे खुश हुए जैसे कि "कारु का खजा़ना"उनके हाथ लग गया हो!

तभी वहाँ विशेष अतिथि बनकर आये एक स्थापित साहित्यकार लक्ष्मीकांतजी उन्हें दिखाई दिये!चंदजी लगभग दौड़ते हुए उन तक पहुँचे और चरण स्पर्श करते हुए अपना परिचय दिया! लक्ष्मीकांतजी  ने  बडी़ व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ प्रश्न दागा! "कहाँ-कहाँ छपे हो?कितनी किताबें आई, अब तक?नाम नहीं सुना कभी!" अब सरस्वतीचंद क्या बताते?साहस जुटाकर कहा-" सर! अभी तक को केवल एक छपी है! पर लंबे समय से अखबारों में लिख रहा हूँ और.....!"इसके पहले कि वे पूरा उत्तर दे पाते, लक्ष्मीकांत जी ने कहा-"मेरी पचास किताबें आ चुकी है और सौ के करीब सम्मान और पुरस्कार मेरे खाते में है!बहुत प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकायें मुझे छापती है !मेरी भेजी कोई रचना सखेे़द वापस नहीं आती है!"

सरस्वतीचंद ने उनका आशीर्वाद लेना चाहा लेकिन उसके पहले ही वे किसी और से मुखा़तिब हो गये! उनके बारे में जानने में आया कि लक्ष्मीकांतजी केवल नाम से ही लक्ष्मीकांतजी नहीं थे बल्कि लक्ष्मी जी की कृपा भी उन पर खूब बरसी थी!कई पत्र-पत्रिकाओं  के प्रकाशन में उनका आर्थिक सहयोग था!  कई सरस्वतीसाधकों को उन्होने अपनी छत्रछाया में रखा पर उभरने नहीं दिया!इधर सरस्वतीचंद जी अभी उभरते हुए थे या नहीं, पर अपने पहले संग्रह पर हुए खर्चे से अभी तक नहीं उबर पाये थे !हाँ, एक बात जरूर कहा करते थे--"न किसी से तुलना, न किसी से होड़!/मेरी अपनी मंजिलें, मेरी अपनी दौड़!!"

आजकल सरस्वती के साधक अक्सर ये बात कहने लगे हैं और वे तो  सरस्वतीचंद थे! जैसे -तैसे खुद को संतुष्ट और स्वाभिमानी दिखाते हुए वे अभी पलटे ही थे कि सामने एक मंजी हुई लोकप्रिय और स्थापित मानी जा रही कवियित्रि से सामना हुआ जो कभी -कभी उनकी फेसबुक पोस्ट पर भूले-भटके टिप्पणी कर दिया करती थी!आज उनकी तीसरी कृति का विमोचन भी था! सरस्वतीचंद जी ने विनम्रतापूर्वक झुकते हुए उन्हें प्रणाम किया! बातों ही बातों में कवियित्रि ने अपना बड़प्पन जाहिर करते हुए कहा --" चंद जी! "हमें जो पुरस्कार मिले, इन्हें इधर उत्तरभारत में कोई नहीं जानता! सच में !जब से इन बडी़-बडी़ पत्रिकाओं में मेरी कवितायें छपना शुरु हुई है,तब से लगने लगा है कि अभी तक हम लोगों की कोई औकात नहीं थी!"

सरस्वतीचंद जी को यह" हम "शब्द बडा़ चुभा क्योंकि इसमें लक्षित उन्हें ही किया गया था! अब उनसे नहीं रहा गया,बोल उठे-"अरे मैडमजी! छपे तो छपे, नहीं तो नहीं छपे!इसमें इतना क्या सोचना? वैसे भी अब तक कोई दूसरे सुर, तुलसी, रसखान, निराला हुए क्या? या दूसरी महादेवी हुई क्या?और जहाँ तक पुरस्कारों की बात है तो हम कहाँ उत्तर-दक्षिण के पुरस्कारों के नाम जानते हैं? हम तो मध्य (प्रदेश) में ही संतुष्ट है़! मैं तो जब रचनाएँ ई-मेल करता हूँ तो वे कई बार "सेन्ट" होने की बजाय "ड्राफ्ट" में चली आती है या मोबाइल "डिलिवरी फेल" बता देता है!बहुत बाद में पता चलता है!  मुझे कोई खास अफसोस नहीं होता! अब जब पहुँची ही नहीं तो छपे कैसे? छपने वाले लोग ई-मेल अक्सर गलत बताते है़! और छपी तो ठीक, नहीं छपी तो भी ठीक!पुरस्कार मिले तो ठीक,नहीं मिले तो ठीक! 

ये सब कुछ सरस्वतीचंदजी इतनी प्रखरता के साथ बोले कि  न केवल स्थापित हो चुकी कवियित्रि ने तत्काल वह  स्थान छोड़ दिया बल्कि लक्ष्मीकांतजी का ध्यान भी बरबस उन पर चला गया! सरस्वतीलाल ने इस तरह खुद को सांत्वना दी और स्वाभिमान की रक्षा का भाव लिए अपने लिए जगह तलाश ली!कार्यक्रम समाप्ति के बाद न तो वे रुके, न किसी ने उन्हें रोका! उन्हें समझ आ गया था कि सरस्वती के साथ लक्ष्मी की साधना ज्यादा जरुरी है ताकि किताबों की संख्या बढा़ई जा सके! 

*तिलक विहार, जावरा, जिला-रतलाम 

 


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