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तुम तो चलते -फिरते श्मशान हो








*रविकान्त सनाढ्य

हाँ, कुछ भी कर लो तुम , 

सब जायज़ है 

तुम्हारे लिए ! 

क्या 'नाज़ायज" है 

इसका तुम्हारे शब्दकोश में 

कोई स्थान नहीं 

क्योंकि 

मानवीय संवेदनाओं को तो 

तुमने रख दिया है 

ताक में ! 

कुछ फ़र्क नहीं 

तुम्हारे लिए 

पाक और नापाक में !

तुम्हारे इरादे ख़तरनाक़ हैं,  

तुम कलंक हो 

इंसान के नाम पर 

तुम्हारा क्षणिक मनोरंजन 

भारी है पशुओं की जान पर ! 

क्या बिगाड़ा था 

हथिनी ने तुम्हारा ? 

क्या यह घृणित कृत्य ही था

तुम्हें ग़वारा ! 

शर्म आती है तुम्हारी 

हैवानियत पर, 

तुम न जाने कैसे हैवान हो , 

छिः थूकता हूँ मैं तुम पर , 

तुम बस नाम के इंसान हो , 

तुम तो चलते -फिरते

श्मशान हो !!

*भीलवाड़ा ( राज.)

 


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