* डॉ. भवानी प्रधान
कुछ अनमोल से
कुछ अनगिनत से
ये सपने मेरे अपने
सुबह की अलसाई सी
सकुचाई सी
आँखों से
दिन के उजालों में
बैठकर कभी -कभी
शाम को खिड़की से
झांककर कभी
देखती हूँ अनगिनत सपने
कभी ठण्ड से ठिठुरकर तो
कभी बारिश में भीगकर
और कभी -कभी
जेठ की दोपहरी में
पसीने से तर बतर
होकर देखती हूँ
अपने लिए सपने
जो मेरे आँखों में है
मुझे संबल देते हैं
आश्वासन देते हैं
मुझे कभी न हार मानने की
उम्मीद देते हैं
ये अनमोल सपने मेरे
ये जीवंत हैं
जो मुझे कहते हैं
संघर्ष करके आगे बढ़ो
रास्ते ताक रहे हैं
बाहें फैलाये
स्वागत करने को
तैयार खड़े हैं
*रायपुर छत्तीसगढ़
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