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पृष्ठ उलट रहीं हूँ मन के



*डॉ. प्रतिमा विश्वकर्मा 'मौली'


लिया जीवन खुशियाँ बन के
रही छाँव में मातु पिता के
बड़ी बाडी की बेल संग से
इमली ,बेरी ,बिही से लटक के
डूबते थे सूरज परियो की कहानी बन के ।
याद बहुत आते दिन बचपन के
पृष्ठ उलट रहीं हूँ अपने से मन के


कितने सुंदर थे वो सांझ सवेरे
सखियों संग जो मेरे खेल नवेले
पनघट गाँव के मड़ई ,पीपल मेले
भैया के संग वो साईकिल के फेरे
बिलखते थे परिजन जो मुझसे बिछड के
किस विध मिलूं फिर गले लग के
पृष्ठ पलट रहीं हूँ अपने से मन के


हुए बड़े नित खारे होते गये
गाँव पनघट, मुंडेरो, मिठास से गये
दो किताबो को पढ़ सयाने कहलाये
अपनी ममता,छाँव,सुकून गवाये
खोया सुकून रात कटे सफे काले कर के
पृष्ठ पलट रहीं हूँ अपने से मन के


निर्मल प्रेम अब बीती बातें
घात पर घात लगी प्रतिघातें
सोच मैं हूँ तीर लगे की निकले
उड़ने की चाह में पाताल जा धसे
पाया क्या मैंने वो सब खो के
पृष्ठ उलट रहीं हूँ अपने से मन के |


पाया हीरा जन्म मानुष गवाया
मन हर घडी अब जाकर पछताया
बाँसुरी किशन की मन वृन्दावन को तरसे
आश प्राण आत्मा की रही उमगते
गया वक्त भला आता न पलट के
पृष्ठ पलट रही हूँ अपने से मन के।


*कोटा,आमानाका, रायपुर (छत्तीसगढ)


 


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