*डॉ. येशुक्रिती हजारे
मैं चल पड़ी हूँ
उस पथ पर
डगमगाते है पग मेरे
निराशाओं में घिरते जाती,
दु: ख और सुख की अनुभूतियों
में मैं खो जाती हूँ
निहारू निरंतर भावों को,
शब्द न जाने कहाँ खो गये
नि: शब्द हुई मेरी कविता |
मैं हुई एकांकी
प्यासे हुए मेरे भाव
बंद कमरे में,
जिंदगी ठहर सी गई |
इंद्रधनुष के रंगों को देखकर
मैं समेटना चाहती हूं
सतरंगी इंद्रधनुष के रंगों को
जीवन में ढालना चाहती हूंँ
तुम्हारे ही रंग में रंगना चाहती हूं
फिर भी भाव न बनते
हृदय प्रफुल्लित होता निरंतर,
खिल उठता रोम- रोम,
फिर भी भाव न बनते |
कल्पनाओं की उड़ान नहीं बनती,
यथार्थ में जीने की आदत हो गई है
धुंधले दिखाई देते हैं सब
कल्पनाओं के चित्र ,
जिंदगी बदरंग सी हो गई है
क्या उषा, क्या निशा,
कल्पनाओं की उड़ान ,
अब तमस में सिमट कर रह गई है...
*डोंगरगढ़ , जिला राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़)
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