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मैं थककर चूर हो गया हूँ



*रविकान्त सनाढ्य

आपको मुझे श्रमजीवी कहते हुए गर्व होता होगा , 

पर वास्तविकता यह है कि मैं 

शर्मजीवी बनकर रह गया हूँ !

 

यही मेरी नियति है , 

बचपन से पचपन  तक 

पूरा खलास हो गया हूँ ।

उपवन में खिले हुए  ताज़ा गुलाब, 

मैं जंगल का पलाश हो गया हूँ ।

 

जीवन है थार का मरुथल , 

मैं अदद  बौनी- सी 

छाँह की तलाश हो गया हूँ ! 

 

जमाए बैठे हैं सभी 

अपने आसन , 

मुझे मिलता तक नहीं पूरा राशन !

 

अस्त-व्यस्त इतना कि 

कबाड़ की दुकान हो गया हूँ  ! 

 

मेरे सपनो  में भी बसता था 

एक हसीन भारत , 

मैं 'अभावों का हिन्दुस्तान ' 

हो गया हूँ ।

 

चाहत थी अपनी 

अस्मिता की तलाश , 

होकर के हताश,  

 मैं भटकाव में ही खो गया हूँ ! 

 

लिखो, बस लिखो मुझपर 

कविताएँ और महाकाव्य , 

मैं सुनने का अभ्यस्त 

हो गया हूँ ! 

 

आत्मनिर्भरता की हुमक थी 

मन में , 

कुछेक की नज़रों में 

परोपजीवी हो गया हूँ !  

 

मुझे श्रमिक कहो या मज़दूर , 

मैं अपनेआप से दूर हो गया हूँ ! 

मत दिलाओ मुझे राहत या दिलासा, 

 

 टूट गया हूँ पूरी तरह और 

थककर चूर हो गया हूँ ! 

थककर चूर हो गया हूँ !!

*भीलवाड़ा ( राज.)

 


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