*पुखराज जैन 'पथिक'
गरीबों को खाने के लाले पड़ रहे,
सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहे ।
इंसान की कोई किमत रही न अब,
मंदिर में सोना चांदी हीरे चढ़ रहे।
दो रोटी काफी है भूख मिटाने को,
बेवजह आपस में यह क्यों लड़ रहे ।
जगत जननी असहाय हो गई अब ,
अंग -अंग पर सुविधा के किले गड़ रहे
रकबा अन्न का घटता जा रहा है,
सीमेंट कंक्रीट से भूमि को जड़ रहे ।
इतराओ न अपनी विकास पर तुम,
हर कदम विनाश की ओर बढ़ रहे ।
कट जाते गरीबी में सर गरीब के ,
ईमानदारी जो पर सदा खड़े रहे ।
करने लगा मानव भी अब मनमानी ,
पानी के बदले बादलों से अंगारे झड़ रहे ।
*नागदा(उज्जैन)
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