*संगीता पाण्डेय
राह से भटका आदमी
अक्सर , मंजिल से दूर
बेसबब भटकता रहता है
क्योंकि, उसे राह नही पता
न ही उसने देखे मील के पत्थर
मंजिल की चाहत उसे भटकाती है।
रेल की पटरियों पर दौड़ती रेल
मंजिल तक पहुँचा देती है
क्योंकि पटरियां नही भटकती इंसानों की तरह
भूखे प्यासे मजदूरों को लेकर चलती रेल
कैसे भटक रही रास्ता
जीवन को बचा लेने की जद्दोजहद
अपनी जड़ों तक पहुँचने की इच्छा
भूखे प्यासे बैठे घण्टों का सफर
भटकते हुए बदल गया दिनों में
जीवन जीने की लालसा
ले आई मौत के डिब्बे में
जन्मभूमि पहुचते तो हैं,
पर जिंदगी की राह भटक गए
दो क़दमो से शुरू हुआ सफ़र
भटकाव के खेल में चार कंधों पर उठ गया।
*अम्बिकापुर, सरगुजा छ ग
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