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अभिमन्यु की तरह



*प्रफुल्ल सिंह 'बेचैन कलम'

हे प्रिये

मैं तुम्हारे प्यार में खुद को 

हमेशा अभिमन्यु की तरह पाता हूँ।

जो की तुम्हारे द्वारा रचे 

उस चक्रव्यूह में जाना तो जानता है

पर निकलना नही।

तुम्हारी मुस्कुराहट, तुम्हारे नयन, 

तुम्हारे गुलाबी होंठ

तुम्हारे खूबसूरत काले केश

तुम्हारी बदन की कोमलता

तुम्हारे मन की चंचलता

तुम्हारे कंठ से निकली मधुर आवाज

और तुम्हारे करीब आने की वो खुशबू,

इन सारे हुस्न और श्रृंगार रूपी

महारथियों के बीच

मैं खुद को विवश निहत्था 

और असहाय खड़ा पाता हूँ

और फिर खुद को पूरी तरह 

सर्वस्व तुम्हारे हवाले कर देता हूँ।

क्योंकि मै इस प्यार के चक्रव्यूह 

और तुम्हारे हुस्न एवं श्रृंगार रूपी 

अनेक महारथियों के बीच से 

निकलने का मार्ग नही ढूँढ पाता हूँ।

मैं कभी भी अर्जुन नही बन पाता 

जिसे चक्रव्यूह में जाना और 

वहाँ से निकलना दोनो आता हो।

मैं तो बस चक्रव्यूह में 

जाने तक का ही ज्ञान रखता हूँ और

निकलने के मार्ग का मुझे कोई ज्ञान नही,

और इस तरह मै अभिमन्यु ही रह जाता हूँ।

कदाचित मै सीखना भी नही चाहता 

उस ज्ञान को जो मुझे 

उस खूबसूरत चक्रव्यूह से 

बाहर आने का मार्ग बताए।

सच तो यह है कि

मुझे वहाँ तक जाना और

बिल्कुल निहत्था हो जाने में ही 

आनन्द की अनुभूति होती है।

मैं खुद को तुम्हे सौंपने रूपी 

अपने अधूरे ज्ञान में ही

अपने प्यार की सम्पूर्णता देखता हूँ,

मै तुम्हारे हुस्न और 

श्रृंगार रूपी महारथियों द्वारा

वीरगति को प्राप्त करने में ही

अपनी सफलता और सुख का

मार्ग ढूँढ पाता हूँ।

इसलिए अर्जुन न बनने और 

मेरे इस अभिमन्यु बने रहने में 

मेरा ही निज स्वार्थ है।

इसलिए हे प्रिये

तुम्हारा यूँ द्रोण बनकर 

चक्रव्यूह की रचना करना

और मेरा अभिमन्यु बनकर 

उसमें उलझ कर रह जाना

बहुत ही खूबसूरत प्रसंग है।

अपने इस मोहब्बत के महाभारत का

यह एक बड़ा ही आनन्दायक

सुखद और खूबसूरत अध्याय है।।

 *लखनऊ, उत्तर प्रदेश

 


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