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यह अवसर फिर से देश को बनाने का है और आत्मशक्ति को मजबूत करने का


 


सच कहूँ,इस लॉकडाऊन में मन खाली खाली सा थाः सत्तर की आयु। बाहर निकलने की मनाहियाँ। अखबारों और टीवी में विश्व भर में मृत्युलीला और भारत में मजदूरों का तड़पभरा संताप। करुणा तो इनसे भी रिश्ता बनाती है। मगर कुछ न कर पाने की बेचैनी। कोरोना को लोग धन्यवाद देते हैं, आत्म जागरण के लिए, जीवन शैली में बदलाव के लिए। पर सब ठीक होने पर यह विवेक कितने दिन चलेगा! पर सोचना होगा कि गरीब का जीवन भी चले और हमारा आत्मजागरण मनुष्यता से रिश्ते भी निभाए । यों रिश्तो में फोन खटखटाते रहे ।संवाद बना रहा ।पर वास्तविकता यह है किसी ऐसे संकट में भोजनादि के लिए कुछ संस्थाएँ, कुछ लोग बाकायदा देशभर में जुड़े ,वैसे मैं नहीं जुड़ पाया ।पर कुछ बातें समझ में आईं।वायरस अदृश्य है और भगवान भी। अदृश्य वायरस से डरते हैं ,तो अदृश्य परम शक्ति को भी नमन कर आत्मशक्ति बढ़ाएँ।दूसरे यह कि जिस क्षेत्र में रहते हैं उसके पारंपरिक खानपान को दिनचर्या में फिर से लाएँ। न कि आइटमवाद को ।तीसरे यह कि ऑक्सीजन के लिए हरियाली को अहम हिस्सा बनाएँ।महानगरीय जीवन की अपेक्षा सभी सुविधाओं के साथ कस्बों का विकास करें ।पशुपक्षियों को भी उतना ही महत्व दें ,क्योंकि वे भी मानवी जीवनचर्या में सहायक हैं।जहाँ तक बने गाँव को आत्मनिर्भर बनाएँ।और सामान्य जन को अध्यात्म से संतुष्ट। यह अवसर फिर से देश को बनाने का है और आत्मशक्ति को मजबूत करने का।

*प्रो. बी.एल.आच्छा,चेन्नई

 


इस विशेष कॉलम पर और विचार पढ़ने के लिए देखे- लॉकडाउन से सीख 


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