*डॉ. अनिता जैन 'विपुला'
"अरे बीज आओ तुम्हारा स्वागत है" मिट्टी ने बीज को ममता से भर अपनी कोख में स्थापित कर खुश होते कहा।
"आप कौन हैं और मैं कहाँ आ गया" सहमा सा बीज बोला।
"मैं मिट्टी हूं अब से मैं ही तुम्हारे लिए भोजन, पानी और प्रकाश की व्यवस्था करूंगी और समय आने पर तुम्हें अंकुरित करूंगी" मिट्टी ने बीज को सहलाते हुए कहा।
"वो कैसे" बीज ने और जानना चाहा।
"तुम्हें मुझमें मिलकर/विगलित होकर अंकुरित होना होगा और जब तक तुम मुझसे जुड़े रहोगे तुम्हें मैं पोषण देती रहूंगी।" मिट्टी ने कहा।
"इसका मतलब मुझे ताप-गर्मी सहकर और अपने अस्तित्व को मिटाकर नए रूप में प्रस्फुटित होना होगा और संसार का भरण पोषण करना होगा।" बीज ने कहा।
"हां , यही जीवन है और यही उसका उद्देश्य ,मैं तुम्हारा पूरा ख्याल रखूंगी।" मिट्टी ने आश्वस्त करते हुए कहा।
"फिर तो मैं आपके बच्चे जैसा हुआ पर आपसे बिछुड़ कर मेरा क्या होगा।" घबराये बीज ने पूछा।
"सुनो प्यारे बीज ! तुम्हारे जैसे और भी बहुत सारे बीज हैं उनमें से कुछ तो मेरे साथ आकर वापस मिलेंगे और उनका यह क्रम चलता रहेगा, चलता रहेगा..."
"और जो नहीं आते उनका क्या होता है" बीज ने बीच मे ही पूछ लिया।
"वे अपना सर्वस्व इस संसार के लिए न्योछावर कर इस क्रम से मुक्त हो जाते हैं।" मिट्टी ने लम्बी साँस लेते हुए कहा।
द्रष्टा वट वृक्ष जिसके नीचे हल जोतकर थका हारा किसान सुस्ता रहा था, बीज और मिट्टी के इस संवाद को सुन संसार चक्र/सृष्टि की निरंतरता को सहज ही समझ गया।
*डॉ. अनिता जैन "विपुला", उदयपुर
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