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शरद जोशी-स्मृतियों के बीच


*प्रो.बी. एल. आच्छा


पिछली सदी के आठवे – नवे दशक में हर कोई शरद जोशी और हरिशंकर परसाई के व्यंग्यों के प्रति रोमांटिक सा था लेकिन शरद जोशी ने कवि सम्मेलनों के मंच पर गद्य का झंडा जो गाड़ दिया, तो लगा कि रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक युग को "गद्य की सत्ता का युग या गद्य युग" ठीक ही कहा छापाखानों के खुले हुए मुखों को गद्य-रचनाएँ ही तृप्त कर पाती हैं, पर गोष्ठियों के गमलों में किसी तरह उगने वाला व्यंग्य कवि सम्मलनों श्रोताई फरमान बन जाएगा, यह अचरज भरा लगता था संयोग से शरद जोशी एक कवि सम्मेलन में बडनगर ( उज्जैन, म.प्र.) आये तो मुझे कर्तव्यबोध हुआ कि इस नामी व्यंग्यकार का हिन्दी के प्राध्यापक के नाते स्वागत सत्कार कर लूँ। यद्यपि कई बार बड़ी प्रतिमा को लेकर डर भी बना रहता है कि यह घरेलू मंदिरों में स्थापित भी हो पाएगी की नहीं। हिन्दी का लेखक यों बड़ा आत्मीय भी होता है, कि कई बार नागार्जुन की तरह घर का हिस्सा बनकर सबको रस चरवाता है, पर सरकारी खर्चों पर पलने वाले कुछ अकादमिक या कवि सम्मेलनों में ऊँचे मोल भाव वाले कवि अपनी ऊँची पहचान या रंगीलेपन के लिए रेस्ट हाऊस या ऊँची होटलों के बैरो से बतियाने का (कम) भाग्य लिए घरेलूपन के सुख से दूर ही रहते हैं।



मैं भी शरद जी को घर के आतिथ्य के लिए निवेदित करने डाक बंगले पहुंचा। अपने कुछ प्रिय आयोजकों से जरूर कह रखा था कि शरद जी आएँ तो बताना ताकि घर ला सकूँ । और वे भी यही चाहते थे कि शरद जी को कोई संभाल ले, क्योकि लेखक की शोहरत के आंतक को संभालने का क्षेत्रफल उनके मनोमस्तिष्क में नहीं होता। लेकिन हुआ यह कि मैं डाक बंगले पहुंचकर प्रतीक्षा करता रहा और आयोजक गण शरद जोशी को लेकर मेरे घर पहुंच गये। आयोजकों ने दरवाजा खटखटाया और मेरे बारे में पूछा पत्नी ने कहा 'वे तो शरद जी जोशी को लेने डाक बंगले गये है।' शरद जी टपक पडे – 'ये रहा मैं शरद जोशी।' पत्नी सहम गई। मोबाईल होता नहीं था। शरद जी को भीतर बिठाया और एक आयोजक को मोटर साइकिल से मुझे सूचित करने भिजवा दिया। मैं गदगद था, कद काठी बढ़ी हुई सी थी अब तक फोटो से पहचानते थे, अब उनके अंगी भाव से पहचाना तो भीतर की नसें भीगी – भीगी नजर आई। उन्होने पेड़ा खाया और बोले ' पेड़ा बहुत अच्छा है, एक और ले लूँ ? तभी 7-8 बरस का मेरा बड़ा बच्चा बोल पड़ा – 'अंकल जी ये सब आपके है, हमारे को मम्मी ने पहिले ही खिला दिये।' और ठहाका लग गया। सहज रूप से भोजनादिक के बाद वे कवि सम्मेलन गये कोई तीन-चार व्यंग्य सुनाये मुझे संशय था कि गीतकार प्रदीप और व्यंग्य की गंगोत्री कुंजबिहारी पाण्डेय की जमीन पर यह गद्य उगेगा कि नहीं ? पर उनके व्यंग्यों की मार और पठन मुद्राओं ने सारे कोनों को चुप करवा दिया।


फिर उनको चक्कलस पुरस्कार मिला मैंने बधाई का पत्र भिजवा दिया यह भी कि यदि पुनः बडनगर आएँ या इस रास्ते से निकलें तो एक बड़ी गोष्ठी का अवसर दें यद्यपि यात्रादि व्यय के अतिरिक्त हम जुगाड़ नही कर पाएंगे शरद जी का पत्र आया चिन्ता न करें मैं आऊँगा और गोष्ठी में ही आऊँगा, सम्मेलन में नहीं इस बार वे आये तो घर अभिभूत सा था, कोई डर नही, कोई आंतक नहीं। पेडे फिर तैयार थे, स्वल्पाहार में पत्नी ने कहा – 'यह आपकी फरमाईश है।' वे बोले – 'अब शक्कर ने मुझ पर व्यंग्य कर दिया है, इसलिए नहीं खा पाऊँगा सुगर को तो चने और नमकीन चाहिए। चने भी आये और 'सुगर ' का प्रतिरोध करते रहे और बातों – बातों में व्यंग्य ठहाके मारता रहा दोनों बच्चों ने उनका स्वागत किया, तो वे बोले – रात को तुम भी सुनने आना, दो बाल श्रोता बढ़ जाएँगें पर तभी शरदजी कहना न भूले - ' तुम्हारी एक व्यंग्य रचना साप्ताहिक हिन्दुस्तान में देखी थी एक नवांकुर को उस समय और क्या चाहिए था ? मन ऐसे थिरकने लगा जैसे कमल के बड़े से पत्ते पर ओस की बूंदें थिरकने लगती हैं। उस समय तक दो चार ही तक व्यंग्य लिखे थे फिर तो शरदजी व्यंग्य पर ही बात करने लगे। बोले – देखो भाई, व्यंग्य का विषय तात्कालिक हो या काल की लंबाई वाला, हर तीसरे वाक्य में चुटीलेपन या हास्य का लेप तो चाहिये ही। बात को जिंदा रखने के लिए वर्णन में पसरने के बजाय संवादों में काँटें – कलियाँ बिछाना मौजू है और उसका असर पाठक या श्रोता पर अप्रत्याषित रूप से हो, इसके लिए खबरदार तो रहना पडेगा


और तब तक गोष्ठी का समय हो गया था । कोई सौ – सवा सौ श्रोता होंगें अकेले व्यंग्यकार को बीच – बीच में विश्राम देने के लिए गीतकार हेमंत श्रीमाल से भी निवेदन कर रखा था। उन्होने भी दो तीन बार गीत सुनाये। मगर शरदजी के व्यंग्य को सुनने के लिए लोग फरमाइश करते रहे। शरदजी बोले – 'इन लोगों ने कितने व्यंग्य पढ़ रखे हैं ? ' उन व्यंग्यों की पंक्तियाँ भी इन्हें याद हैं, फिल्मों के प्रसिद्ध संवादों की तरह। आखिर रात 12 बजे बाद वे चौदहवाँ व्यंग्य पढ़ने को मजबूर हुए तो बोले - 'आप लोग भी गजब के श्रोता हैं यह चौदहवाँ व्यंग्य है, इससे कुत्ते के काटे का भी इलाज पूरा हो जाता है। लोग इसके बाद भी चुप नहीं रहे, शरद जी ने दोनों बाल श्रोताओं की तरफ इशारा करते हुए कहा – ' ये हमारे बाल श्रोता तो सो गये हैं, अब आप भी इनकी राह पकड़कर घर जाइये, वर्ना शरद जोशी को कोसा जाएगा। फिर भी घर पर उनके कुछ दीवाने पहुच गये। शरद जी को शरदजी के ही व्यंग्यों के संवाद और पंक्तियाँ सुनाने लगे तो शरदजी का चेहरा खिल गया। बोले – 'आपने इतना याद कर रखा है......... ' फिर बातचीत में वे बोले – 'व्यंग्य तो मुठभेड़ की तरह है। जैसे दो बैल सींग लड़ाकर नीचे देखते रहते हैं, व्यंग्यकार भी ऐसे ही सींग लड़ाता रहता है, दृष्टि को एकाग्र किये। फिर परिणाम जो भी हो।' यही उनकी साहसिकता थी, व्यंग्य के लिए अपने को स्वाहा करने की मानसिक प्रतिबद्धता और अपने समय का प्रतिबोध करवाने की जागरूकता


अगले दिन सुबह किसी बस से उज्जैन जाने का कार्यक्रम तय था। 10 – 12 लोग बस के समय से पहले ही मौजूद थे। घर से पैदल ही चल दिये। बस स्टेण्ड पर कोई चाय, तो कोई गरम समोसे – पोहे ले आया। किसी ने फ्रंट सीट रोक ली शरदजी अभिभूत थे। होते – होते लोग बढ़ गये, कंडक्टर भी समझ गया कि कोई 'बड़ी सवारी' उसकी बस में सवार हो रही है। रास्ते में 'इंगोरिया' में वह भी गरमागरम कचौरी ले आया। मैंने शरद जी को छोटा – सा लिफाफा देते हुए कहा – ' हम कुछ विशेष दे नहीं पाये जो आप के सम्मान के योग्य होता। पर उन्होने यही कहा - 'यह आत्मीयता लेखक को जिन्दा ही रखती है, उसके तेवर को ठंडा नहीं होने देती। लिफाफे का बड़ा धन तो खर्च होकर खुट जाता है यह प्रेम आदमी को खुटने नहीं देता। 'मेरा ग्लानिभाव उस समय गल सा चुका था। बाद मैंने एक व्यंग्य उनके द्वारा संपादित 'हिन्दी एक्सप्रेस' को भेजी। अमूमन हिन्दी वालों का एक तरीका है ही वे अपने आयोजनों में बड़े रचनाकारों या संपादको में बुलाते रहते हैं, मालाओं से लाद देते हैं और बाद में अपनी एक रचना टिका देते हैं। छप जाने की संभावना पक्की हो जाती है।


फिर मैं ट्रांसफर होकर शाजापुर (म. प्र.) गया। शरद जी की ससुराल । शरदजी के साढू भाई गीत गजलकार नईम मेरे विभागाध्यक्ष थे। उन दिनों शरद जी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। पच्चीस बरस बाद वे ससुराल की जमीन को छू पाये। उनका स्वागत हुआ। हाल खचाखच भरा था खूब मालाएँ हुईं। वक्ताओं ने शरद जी के लिए खूब कहा। एक ने कहा – 'शरद जी, आपने एक मुस्लिम कन्या से विवाह करके राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव का परिचय दिया है।' शरद जी स्वागत के प्रत्युत्तर में खड़े हुए। संबोधन के दौरान कहा – 'अभी एक भाई ने कहा कि मैंने एक मुस्लिम कन्या से विवाह करके राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव का परिचय दिया है। मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि उस उम्र में मैने वही किया जो युवा अवस्था में कोई भी लड़का या लड़की करते हैं।' पूरा हाल ठहाकों से गूंज गया, हँसी रोके नहीं रूकती थी


बाद में तो कभी संयोग नहीं मिला। पर नईम साहब मुंबई गये थे, कुछ दिन साढू भाई के परिवार में ही बिताये उन दिनों राजीव गाँधी की दुखद घटना हुई। नईम साहब बता रहे थे कि शरद जोशी बहुत बेचैन थे। बोले – 'अभी इस युवा के इस तरह जाने की उम्र नहीं थी।' उनकी आँखें छलछला गईं थीं। शरद जोशी व्यंग्यकार थे, कईं व्यंग्य राजीव गाँधी पर लिखे गये थे। पर व्यंग्यकार के कोमल मन पर उनकी दूसरी छाप भी थी, मानवीय संवेदना और करूणा का जलजला भी यों भी करूणा के बगैर व्यंग्य कैसा ? वह तो फोड़े का उपचार अपने नस्तर से करता है, न कि शरीर पर मारक प्रहार वह तो स्वस्थ होने का उपाय करता है, अस्वस्थ के कारक को व्यवस्था के भीतर से निकालकर । निश्चय ही शरद जोशी की बड़ी कद – काठी और धारदार प्रहार क्षमता के भीतर वह साधरण आदमी लहलहाता था, जो ग्रामीण आत्मीयता और रचनाशील सुकोमलता को छिटका नहीं पाता।



*प्रो. बी.एल. आच्छा, चैन्नई

(लेखक वरिष्ठ समालोचक एवं व्यंग्यकार है)

 

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