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शहरों में आ गए



                   

*अशोक 'आनन '

 

गांव छोड़  हम शहरों  में आ गए ।

दुनिया की सारी खुशियां पा गए ।

 

सर्व सुविधायुक्त है मक़ान ।

       यंत्रवत - सा  है हर इंसान ।

                भीड़  भरा शहर भी लगता  -

                        हो  जैसे   कोई    श्मशान ।

बब्बा ,  दद्दा ,  अम्मां  जैसे -

संबोधन  हम  भुला   गए ।

 

सूरत उनकी भोली - भाली ।

       शहद सरीखी जिनकी बोली ।

              हम भी पल में उनके हो गए -

                     प्रेम की जिनने पोथी खोली ।

आंगन , देहरी, तुलसी , बरगद -

अपनी आंखें फिर भिंगो  गए ।

 

 

मोम  सरीखे  न  हृदय  मिले ।

     नागफनियों में  न फूल खिले ।

            घर  के  पतों  पर न घर मिले -

                  घरों  के  ख़ारिज हुए दाख़िले ।

अपनों  की  हाटों  से ज़्यादा -

गैरों  के  अब  मेले  भा  गए ।

 

*अशोक 'आनन '

  मक्सी,जिला-शाजापुर ( म.प्र.)

 


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