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सारी दुनिया लगती एक परिवार



*कीर्ति मेहता कोमल


मानव से ऊपर होता है मानव का व्यवहार।
इसी लिए यह सारी दुनिया लगती एक परिवार।


हर संकट में इक दूजे के साथ खड़े हम होते।
अगर कोई दुःखमय होता है नहीं चैन से सोते।
बांट रहे हैं अपना अपना हम आपस में प्यार।
इसी लिए यह सारी दुनिया लगती एक परिवार।
 
इस दुनिया में ऐसे रहते जैसे अपने घर में।
नेह का इक झौला टांगे निकले रोज सफर में।
बंजर भूमि प्रेम से अपने हो जाती गुलज़ार।
इसी लिए यह सारी दुनिया लगती एक परिवार।


राजनीति के हर पहलू से खुलता है इक द्वार।
आपस में मिल-जुल कर अपना करते हैं व्यापार।
इसी प्रेम के सूक्त बंधा है यह सारा संसार।
इसी लिए यह सारी दुनिया लगती एक परिवार।


*कीर्ति मेहता कोमल, इंदौर (म.प्र.)


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