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रिश्तों के सच का सामना



*पूजा झा


काफ़िले हैं संग मेरे
रिश्तों की जैसे भीड़ है
क्यों वैदेही आज भी फिर
लाचार बेबस हीन है
प्राणहीन इस देह में
लौटेगी कब फिर चेतना
आज फिर से हो रहा
रिश्तों के सच का सामना


द्वंद जो चल रहा
अंतर्मन के ताप से
रंगहीन सपने हैं मेरे
खुशियां हैं बस नाम की
थक चुके कदम हैं अब
पाषाण हो गए प्राण भी
कैसे करूँ मैं कामना
आज फिर से हो रहा
रिश्तों के सच का सामना


सिंदूरी शाम पे क्यों
बेबसी की घटाएं हैं
उजड़ा घरौंदा फिर किसी का
अरमानों की अर्थी है सजी
दम तोड़ दी हैं ख्वाईशें
सिसकियां फिर हैं दबीं
संवेदना भी दे रही
आज फिर से वेदना
आज फिर से हो रहा
रिश्तों के सच का सामना।।।।


*पूजा झा हाजीपुर


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