*रश्मि वत्स
किया जब निज धरा का शोषण,
प्रकृति ने भी किया फिर कृदंन ।
धरकर रूप विकराल अपना ,
व शक्ति दिखाई अपनी महान ।
प्रवृत्ति पर है बड़ी कृपाल ,
स्नेह से रखे सभी को संभाल ।
मानव फिर भी समझ न पाया ,
पीड़ा दे, किया उसे निडाल ।
प्रेम की धारा मैं ही बरसाती ,
क्षणिक भर ना तुम्हें सताती ।
जरूरतें पूरी कर रही तुम्हारी,
और सदैव तुमको मैं हर्षाती ।
चाहे मानव हो,चाहे हो जन्तु ,
भेद नहीं करती मैं किन्तु ।
मैं पोषित करती एक समान ,
वरदान पाते दीर्घायु भवंतु ।
प्रकति की लीला बड़ी न्यारी,
कहीं मेघ , कहीं सूखी क्यारी ।
प्रकााशित सूर्य से हो दिन है ,
होती रात तारों की दुलारी ।
सौम्यता से सहेजकर रखती ,
जैसे माँ आँचल से ढकती ।
मानव के उद्घार हेतु सदैव ही ,
देती सब कुछ कभी न थकती।
आहत न करो तुम प्रकृति को ,
जीवन आधार है यही धरा तो ।
सदैव इसको सम्मान तुम दोगे ,
तुम जीवन मंत्र यह अपना लो।
*रश्मि वत्स,मेरठ(उत्तर प्रदेश)
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