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परियों कभी गुज़रना इधर से



*राजेश’ललित’

 

परियों कभी वक़्त मिले

तो गुज़रना इधर से

मिलना मुझसे

किसी भी सड़क किनारे

बस यही पता है मेरा

ढूँढ लेती हो बचपन को

यदि तुम चाहो तो

कुछ मिट्टी में सने बच्चे 

बिखरे बिखरे से 

किताबों से दूर

असल जिंदगी में 

बिलख रहे हैं 

मानो कह रहे

बगीचों के उस ओर

सड़क के पार

बैठा मिलूँगा 

टकटकी लगाये 

देख रहा माँ की तरफ़

अभी वही उनकी परी है

देख जाती है 

हर बार थोड़ी देर में

नमक से चुपड़ी रोटी 

जिसे  वह चूसता है

अगले फेरे में माँ

दे जाती है दो घूँट पानी

तृप्त हो माँ सुनाती उसे

दो शब्दों की कहानी

छांव को  तापता

धूप को सहेजता

काट रहा है  दिन

अभी सिकुड़ी  है

सारी धरती  है उसकी

आसमान की उँगली थामे

देख रहा  है

परियाँ उतर रही हैं

दिल्ली

 


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