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मेरी एक गलती से परिवार बेबस न हो जाए



जब तालियां-थालियां बजाईं थीं, तब भयावह मंजर की उम्मीद नहीं थी। उज्जैन में कार्यक्रम था। ठीक एक दिन पहले मेसेज आया, कोराना की वजह से कार्यक्रम रद्द है। पता नहीं कितने कार्यक्रम रद्द हुए। रिटायर हुए चार माह ही बीते थे। बीते बचपन के गांव को दोबारा देखने का मन, काॅलेज को नहारने की इच्छा। पुराने दोस्तों से मिलने, कुछ सुनने और सुनाने की तमन्ना धरी की धरी रह गई। लाॅकडाउन शुरू था। नाती-पोतो के बीच सुबह-शाम का पता नहीं चलता। धीरे-धीरे फटेहाल जिन्दगी सामने आने लगी। टी वी पर दर्द के परखच्चे उड़ने लगे। कैमरामैनों पर गुस्सा उभरने लगा। हमें तो इजाजत नहीं है जाने की। ये पानी की बोतलें पैदल जाने वालों को दे देते। बिस्कुट का पैकेट चैथाई भूख मिटा सकता है। मुंह पर बेशर्मी का मास्क लगाये, पैदल चलती महिलाओं को घूरते और भूखे-नंगे बच्चों को कैमरे में उतारते, ताकि हर साल फाइल चित्र से बेइज्जती कर सकें।
घर में रहें सुरक्षित रहें। सड़क पर घर और सुरक्षा कहां। रिटायरमेंट के बाद अचानक बूढ़ा करार कर दिया गया। परिवार ने बाहर जाने पर रोक लगा दी। अनुरोध-किताबें हैं, लेपटाप है, घर में रहो और हमें चिन्ता मुक्त रहने दो। पैदल चलने वालों से ज्यादा खुद को बेबस समझ रहा हूं। काश दर्द बांट पाता, किसी के दुखदर्द को सहेज पाता, कुछ मदद कर पाता। इस बात का सुख है, परिवार के लोग मदद कर रहे हैं। मैं मूकदर्शक हूं, मार्गदर्शक हूं। सब कुछ है, लेकिन बेबस हूं। मेरी एक गलती से परिवार बेबस न हो जाए, इसी भय से घर में हूं।
*सुनील जैन राही, नयी दिल्ली


 


इस विशेष कॉलम पर और विचार पढ़ने के लिए देखे- लॉकडाउन से सीख 


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