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सुख



*माया बदेका

भागमभाग की जिंदगी।कभी व्यापार के सिलसिले में दस दिन बाहर तो कभी कभी शहर में रहकर भी रात, बारह बजे तक घर नहीं आना। जिंदगी बड़ी तेजी से भागी जा रही थी और मुकेश को पल भर भी फुरसत नही थी।

मां कहती तो कह देते कि, यही समय है कमाने का। पत्नि कहती तो कभी कभी गुस्से में पारा चढ़ जाता की ,---कमाउंगा नहीं तो यह सब सुविधाएं कहां से मिलेगी। तुमको घर में बैठकर क्या पता चलता है।

हर दिन व्यंग्य सुनकर वीणा ने बोलना ही बंद कर दिया।

अचानक परिस्थितियों ने सबको घर में रहने को मजबूर कर दिया। मुकेश को इन दिनों में लगा की कितना भागा में। जरुरत तो परिवार के प्यार की थी,जरूरत तो स्नेह की थी। भौतिक सुखों में आज कुछ काम नहीं आ रहा था। बस एकसाथ बैठकर बतियाता परिवार सब सुखों से उपर था।

 

*माया बदेका, उज्जैन (म.प्र.)


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