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समय का परिंदा



*सुमन 'पुष्पश्री'


यह कविता उन सभी माता पिता को समर्पित है जिनके बच्चे भगवान के पास जा चुके हैं और वे उस दुख से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं । उम्मीद करती हूं कि वे इस कविता को माध्यम मानकर ये समझेंगे कि वे दिवंगत आत्माएं / रूहें उनसे क्या कहना चाहती हैं ।


समय का परिंदा कहीं, उड़ गया यहीं आस - पास कहीं....


खिली वालदेन की गोद में कली ऐसी
' तुबा ' मैं जन्नत के दरख़्त जैसी ।।


रात के काजल - सी, सुबह के आंचल - सी ।
बस मैं तो अपनी अम्मी का साया थी ।।


मुख्तलिफ सादी - सी मेरी हक़ीक़त ।
पुरसुकून मासूम - सी हंसी शख्सियत ।।


मैं ढल जाती थी हर सांचे में, वक्त के हर खांचे में ।
आई खुशियां मेरे खाते में, मिले तुम सारे एक ही आशियाने में ।।


रही हमेशा इत्मीनान में, मानी हर बात ।
बनी सादगी कि मूरत, देख तुम्हारी सूरत ।।


समय का परिंदा कहीं, उड़ गया यहीं आस - पास कहीं....


लड़कपन में जो मिली पनाह तेरी ।
खिली - खिली सी हुई हर सुबह मेरी ।। 


मुहब्बत और इबादत की तुमसे जो तालीम मिली ।
क्या तारीफ़ करूं तुम्हारी, अम्मी बड़ी लाजवाब मिली ।।


देख हल्की - सी मुस्कान मेरी ।
बोली टीचर मिलियन डॉलर स्माइल है तेरी ।।


नन्हा - सा रहा मेरी ज़िन्दगी का सफर ।
जो बड़े ही अच्छे से हुआ बसर ।।


समय का परिंदा कहीं, उड़ गया यहीं आस - पास कहीं....


सपनों की हक़ीक़त और हक़ीक़त का टूटना ।
ज़िन्दगी का रुकना और दिलों का टूटना ।।


मंज़ूर हर लम्हा हमें छोटी - सी ज़िन्दगी की पैमाईश में ।
बस आंचल - ए - सबिका चाहिए हर पैदाइश में ।।


सब कुछ पीछे छूटा, छूटा अपनों का साथ ।
हुए उदास सब अपने याद कर मेरी हर बात ।।


तुम बेचैन न हो मेरी आस में ।
हूं अब भी तुम्हारे दिल के पास मैं ।।


समय का परिंदा कहीं, उड़ गया यहीं आस - पास कहीं....


मिलेगी खुशियां फिर एक बार, करो न तुम यूं रोज़ इंतज़ार ।
पड़ जाती हूं कमज़ोर, सुनकर तुम्हारी यादों की पुकार ।।


मुझे क्यूं याद करती अम्मी दिन रात ?
चुप - चुप सी रहती न करती ज़्यादा बात ।।


मैं कहीं भी रहूं, दुआ करती हूं, रहे तुम्हारा आशियां गुलज़ार ।
संभालो ख़ुद को अम्मी और अब्बू , तुम हो कुनबे का दारोमदार ।।


महफूज़ हूं मैं अल्लाह की रिहाइश है ।
बन जाओ तुम पहले जैसे मेरी ख्वाहिश है ।।


समय का परिंदा कहीं, उड़ गया यहीं आस - पास कहीं .......


*सुमन ' पुष्पश्री 'नई दिल्ली


 


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