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कोरोना की दीक्षा है



*व्यग्र पाण्डे

 

तू तेरे निर्मित इस जग में 

क्यूँ मुँह छिपाया फिरता है 

तन केंचुली के अंबार चँढ़ा 

क्यूँ खुद से ही खुद डरता है 

तू तो अजेय के लिए चला 

पर यात्रा कैसी बना डाली 

खुद की लंका खुद ने ही

एक पल में ही जला डाली

तू भूल गया उसको जिसने

इस सृष्टि का निर्माण किया 

तुझको भी भेजा था उसने 

अलौकिक जो संधान किया 

आकर, पाकर जन्म तू ने

एक अलग दुनिया बना डाली

हो गया कृतघ्न उपकारों का 

ये कैसी फसल उगा डाली

है ईश प्रदत्त ना कोरोना 

दुष्कर्मों की प्रतिच्छाया है 

भस्मासुर बन बैठा तू जो

स्वयं हाथ काल बन आया है 

कैसे भी निकल इस फंदे से 

ये कठिन काल-परीक्षा है 

मनुज, मनुज बनकर के रह

ये कोरोना की दीक्षा है 

 

*व्यग्र पाण्डे ,गंगापुर सिटी (राज.)

 


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