*उपेंन्द्र द्विवेदी
भय अपनों के रुठने का
सपनों के टूटने का
तुम्हें एकाकी बना देता है
आज गीता ही
लगी सार्थक
सचमुच अर्थपरक
जो आज तुम्हारा है
कल किसी औऱ का था
फ़िर किसी औऱ का हो जायेगा
व्यक्ति बँधा है
अनचाहे बंधनों में
झूठे स्वजनों में
कौन सा कर्तव्य पथ
है भला परमार्थ का
व्यक्ति के हर कृत्य में
बीज है बस स्वार्थ का
जब तलक हम मौन है
जग पूछता तू कौन है?
तुम्हारा एक प्रश्न
तुम्हें भीष्म बना देगा
नितांत एकाकी
धृतराष्ट्र सरल है बनना
स्वयं को छलना
परिणाम तो तय है
यश-अपयश तो
अवश्यंभावी
उससे मुक्ति नहीं
पात्र का चयन
तुम्हारा है
कौन सा खेल
रचोगे तुम
केवल इतना स्मरण रहे
कुछ भी कर लो
नियति से नहीं
बचोगे तुम।
*उपेंन्द्र द्विवेदी
ताला, जिला सतना, मध्य-प्रदेश
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