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भारतीय संस्कृति और कोरोना 



*प्रीति शर्मा 'असीम'

 

"जब भूल गया मानव प्रकृति का आदर भाव , मन में आया चौबीसों घंटा पैसा कमाने का भाव , तब संहार करने को जीवन का हुआ कोरोना जैसे महा विनाशक का आविर्भाव" समस्त ब्रह्मांड में आज तक के वैज्ञानिक शोध के अनुसार हमारी पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रह पर जीवन संभव नहीं है। आदिकाल से पृथ्वी पर किस प्रकार जीव-जन्तु, वनस्पति तथा मानव विकसित हुआ इस बात उल्लेख यहां विस्तृत रूप से करना अनिवार्य नहीं है क्योंकि हम सभी इस सारी प्रक्रिया से अनभिज्ञ नहीं हैं । धरती पर जीव,वनस्पति और मानव की उत्पत्ति से लेकर विकसित होने की लम्बी यात्रा में जो तत्व या शक्ति  सहायक बनी उसे प्रकृति, ईश्वर, कुदरत या अल्लाह , चाहे जिस भी नाम से हम पुकारते रहे हो  किंतु उसके अस्तित्व एवं सत्ता को इंसान द्वारा कभी भी नकारा नहीं गया। 

ऋषि-मुनियों, गुरुओं तथा पीरों-फकीरों की तपःस्थली रही महान भारत देश की पावन धरती को ही नहीं अपितु इस धरती पर जीवनदायिनी के रूप में बहने वाली गंगा, यमुना इत्यादि समस्त नदियों को भी इस देश की समृद्ध संस्कृति ने माँ का सम्बोधन दिया। किसी न किसी रूप में प्रकृति की पूजा हमारी धार्मिक और सामाजिक जीवन पद्धति का अंग रही है । भिन्न-भिन्न संस्कृतियों , पृथक पृथक सीमाओं और राष्ट्रों के बावजूद सम्पूर्ण वैश्विक समुदाय प्रकृति की सार्वभौमिक सत्ता को स्वीकार करता रहा है। यूँ तो प्रकृति की सभी रचनाएं उत्तम हैं , तथापि प्रकृति ने उसकी मानव रूपी उत्तम रचना को अपने विशेष गुण-- प्रेम, दया, धर्म, व त्याग उपहारस्वरूप प्रदान करते हुए स्वयं ही इसे अपनी सर्वोत्तम रचना घोषित कर दिया। 

समय की धारा के साथ बहते बहते तथा प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों का मानवता हेतु मर्यादोचित उपयोग करते करते मानव, जीवन के प्रत्येक पहलू को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने लगा और धीरे-धीरे मनुष्य के दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव आता गया । 

प्रकृति के प्रति आदर भाव, अहंकार में परिवर्तित होता गया। प्राकृतिक संसाधनों के कारण प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव शनै शनै स्वामित्व भाव की उत्पत्ति के साथ अधिकार अधिकार  में परिवर्तित हो गया वैज्ञानिक उन्नति ही मानव जीवन का आधार बनकर रह गई। पाश्चात्य तथा अन्य संस्कृतियों की  तो बात ही क्या करना, हम तो हमारी अपनी संस्कृति से भी बहुत दूर हो गए हैं। हमारे जीवन , हमारी धारणाएं, सब संवेदनशून्य होती जा रही हैं। 

जिस समाज में नारी को प्रकृति रूप में पूजनीय माना गया , जिस धरती को माँ कह कर पूजा जाता था , जिन नदियों को जीवन - दायिनी कह कर माँ समान आदर दिया जाता था, जल-स्त्रोतों को स्वच्छ रखने के जिस उत्तरदायित्व का समाज निर्वहन करता था, जहां पीपल-बड़ जैसे वृक्ष लगाने को परोपकार कहा जाता था, जहां घर में पहली रोटी गाय,कुत्ते और कौए के लिए होती थी, जहां खेत में एक कोने की फसल पक्षियों और पशुओं के लिए छोड़ी जाती थी और किसान उस कोने की फसल पर अपना अधिकार त्याग देता था, जहां घर में आये पहले अनाज में से एक हिस्सा देवी-देवताओं के नाम पर दान के लिए रख दिया जाता था , वह मर्यादा, हमारी सोच के वैज्ञानिकीकरण (स्वार्थ - परायणता) के चलते अब समाज में दिखाई नहीं देती। ऊंचे उठने , आधुनिक दिखने और सम्पन्नता की दौड़ ने इंसान को इतना स्वार्थी व लालची  बना दिया कि वह सर्वप्रथम प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों पर अपना एकाधिकार सिद्ध करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हो गया। उच्श्रृंखल मानव सब कुछ भूल गया है और यह कहना गलत ना होगा कि वह, प्रकृति प्रदत्त मानव वेश में, वैज्ञानिक रूप से उन्नति करते-करते आज भस्मासुर  जैसा आत्मघाती अथवा विश्व- विध्वंसक दानव कोरोना  बन बैठा है।

विकास और धन की लालसा में 24 घंटे मानव ने जब खुद को मशीन बना दिया और बस एक दौड़ चाहे किसी के भी सर पर पांव रखकर आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए सारे नियमों को भूल गया तो जीवन के उस पल में इस महा विनाशकारी कोरोना ने ऐसा रूप लिया है धरती , नदियों एवम जलस्त्रोतों , पर्वतों और सागरों   के अमर्यादित दोहन के साथ-साथ चंद्रमा की सतह पर भी पानी की खोज में बड़े बड़े रॉकेट टकरा कर  सुराख करने की सोच को विकृति ही कहा जा सकता है। इसके साथ साथ मानव ने सुंदर धरा, नदियों,सागरों तथा अन्य जलस्त्रोतों को भी प्रदूषित कर के प्रकृति का रूप स्वयं ही बिगाड़ा है। 

प्रकृति ने, मनुष्य की उच्श्रृंखलता और अमर्यादित आचरण को, माँ होने के नाते लंबे समय से निःस्वास चुपचाप सहा है । लेकिन इन्सान जब अपनी सीमा का निर्लज्जतापूर्वक बारम्बार उल्लंघन करने पर उतारू हो गया, तब अंततः प्रकृति ने भी मानव को हल्का-सा सबक सिखाने के लिए काली रूप धारण कर लिया। अपने ही द्वारा वैज्ञानिक रूप से उत्पन्न  मृत्यु रूपी विषाणु से त्रस्त एवं भयाक्रांत वही मानव , जो कुछ दिन पूर्व तक अपने धन-बल और बुद्धि के आधार पर , संसार की प्रत्येक वस्तु अथवा पदार्थ पर अपना एकाधिकार चाहता था, आज अपने घर के भीतर भी किसी वस्तु को छूने-मात्र से घबरा रहा है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो भस्मासुर अपने आप से भी घबरा रहा है और यह भय उस पर इस कदर हावी है कि उसे चारों ओर हर शह में मृत्यु का ही जलवा दिखाई दे रहा है। और आज सारा विश्व अपने घरों में बैठकर करो ना जैसी महा विनाशकारी वायरस से विश्व को बचाने के लिए लड़ रहा है।

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब समय आ चुका है और यदि हम इस धरा पर दीर्घकाल तक मानव-जीवन की कामना रखते हैं तथा स्वच्छ एवं खुले वातावरण में सांस लेते हुए निर्भीकता से विचरण करने चाहते हैं ; तो सम्पूर्ण मानवजाति को पूरी सजगता, ईमानदारी, निष्ठा एवं उत्तदायित्व के साथ, प्रकृती के प्रति मानव द्वारा किए गए खिलवाड़ रूपी कुकर्मों के लिए जहां एक ओर क्षमायाचना करनी होगी, वहीं दूसरी ओर विज्ञान जनित महामारियों से उत्पन्न मृत्युरूपी भय से विमुक्त भविष्य को ध्यान में रखते हुए पूर्ण निष्ठा से यह शपथ भी लेनी होगी कि हम मानव इस धरा को सुंदर, प्रदूषण-रहित बनाने , प्राकृतिक संसाधनों के उचित रख-रखाव में, व्यक्तिगतरूप से अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए , सहयोग करने तथा प्रकृति का स्थान सदैव विज्ञान से ऊंचा एवं पूज्य समझेंगे । इसी में सम्पूर्ण विश्व तथा मानवता का शुभ निहित है। इति सत्यम, इति शिवम, इति सुंदरम। आज जिस प्रकार विश्व केरोना  लड़ने के लिए एकजुट हुआ है अगर हम मानवतावादी दृष्टिकोण की स्थापना के लिए, ना कि मशीनीकरण के लिए मानव को एक रोबोट बनाने के लिए नहीं मानव बनाने के लिए जीवन को लक्षित करें तो हम आने वाली कई महामारी से लड़ सकते है।

 

प्रीति शर्मा 'असीम'

नालागढ़, हिमाचल प्रदेश

 


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