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बेबसी



*डॉ. अनिता जैन 'विपुला'

चारों ओर सन्नाटा पसरा था कोई कहीं आता-जाता नहीं दिखाई दे रहा था। वह शहर जिसे शोर तो ऐसे पसन्द था जैसे किसी को अपनी जान से प्यार होता है, बेजान बेइंतहां सुकून में सोते शहर में भूरा बेबसी को ताकता हुआ जाग रहा था। अपनी रोज़ी रोटी की चिंता की आग में कोरोना का क्विंटल घी आ पड़ा हो जैसे।

भूरा अपने गाँव से मजदूरी करने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ शहर आया ही था। दोनों पति पत्नी बहुमंजिला इमारतों के निर्माण में मजदूरी करते और अपना पेट पाल रहे थे। अभी तक झुग्गी तक का कोई इंतजाम न हुआ था। बस एक बड़ा सा नाला ही तीन बच्चों वाले उस परिवार का आश्रय था । 

जाने कौनसी महामारी फैली थी कि भूरा का  परिवार मुसीबत में आ गया। महामारी के चलते पूरा शहर ठप पड़ा था। आगे भी जाने कितने दिनों तक यह मनहूसियत रहने वाली थी। भूरा की आँखे बस यही जुगत कर रही थी कि कहीं से कुछ सहायता मिल जाये तो अपने गांव वापस चला जाये। उसको रह रह कर गाँव की याद सता रही थी। सोच रहा था क्यों गांव छोड़ा और इस चकाचौंध में आ फँसा। 

भूरा का परिवार गाँव में माता पिता के साथ खेतों पर हाली का काम करते थे जैसे तैसे ज़िन्दगी बसर हो रही थी, पर इस बार बाढ़ में सब कुछ तबाह हो गया था। जीने के लाले पड़ गए थे, इसीलिए तो शहर का रुख किया था और अब शहर भी जाने क्यों तबाही की कगार पर था यह उसकी भोली समझ के बाहर था। 

 शहर में पुलिस तैनात थी लोगों को घरों में धकेलने के लिए। उसने लोगों के मुँह से सुना था कि कोई ऐसी बीमारी है जो आपस में छूने से और सम्पर्क में आने से मौत तक पहुंचा देती है। उसको तो यह परिस्थिति भी मरण समान ही लग रही थी।

 बेचारा भूरा उस सीवर के नाले में बैठी अपनी पत्नी और बच्चों की बेबसी को देखता हुआ सोच रहा था यदि पैदल ही अपने गांव को निकल पड़े तो ...।

ग़मगीन अंधेरे में डूबे शहर में शरण लिए अपने परिवार को बचाने की जद्दोज़हद में दूर तक आँखें फाड़ फाड़ किसी आती हुई आस किरण की बाट जोहे जा रहा था, जोहे जा रहा था...!

 

*डॉ. अनिता जैन 'विपुला'

 


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