*अंकुर सहाय "अंकुर"
इक बात कह रहा हूं इक्कीसवीं सदी से ।
मैं आदमी हूं मेरी चर्चा हो आदमी से ।।
हम साथ जी रहे हैं हर लम्हे मर रहे हैं ।
ऐसी भी क्या शिकायत उनको है ज़िन्दगी से ।।
ये धड़कनेँ जवाँ हैँ अब भी उसी के दम पर ।
शायद कि भूलकर भी निस्बत रही उसी से ।।
फ़िरदौस में गुजारे उनकी फ़िराक़ में पल।
हर हाल मेँ रहे खुश हम अपनी बेकसी से ।।
चेहरे पे लोग रखते एक दूसरा ही चेहरा ,
कन्धे ये बोझ सर का ढोते हैं बेबसी से ।।
क्या क़ाफ़िया लिया है इसमें रदीफ क्या है?
सब आज पूछते हैं 'अंकुर' की शाइरी से ।।
*अंकुर सहाय "अंकुर"
खजुरी ( आहरौला) आजमगढ़ उत्तर प्रदेश
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