*हमीद कानपुरी*
लफ्फाज़ी  होती  रही , हुई  तरक़्क़ी  सर्द।
समझ नहीं  ये पा  रहे , सत्ता  के  हमदर्द।
अबलाओं पर ज़ुल्म कर, बनते हैं जो मर्द।
निन्दा जमकर  कीजिये , मिलेंं जहाँ बेदर्द।
डंका अब बजने लगा , उसकाभी घनघोर।
एक ज़माने  तक रहा , जो इक नामी चोर।
हम सब ज़िम्मेदार हैं,सिर्फ नहीं इक आध।
भूख कराती है अगर , मानव  से  अपराध।
भागे   भीगे   ही   रहे , उस  दम  मेरे  नैन।
कर्बल के मज़लूम जब, आये  याद  हुसैन।
*हमीद कानपुरी,179, मीरपुर, कैण्ट, कानपुर, मो.9795772415
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