*निमिषा पाठक*
'नारी' ये शब्द सुनकर ही आप सोचने लगते हैं ना, एक ऐसी महिला के बारे में जो कोमल है, ममता की मूरत है, देवी है, लक्षमी है, वगैरह, वगैरह।
अगर हाँ, तो ठहरिए। और सुनिए।
सबसे पहले तो हमें परिभाषित ना करें। कोई परिभाषा, कुछ कही सुनी बातें, कुछ मनगढ़ंत कहानियाँ और कुछ सदियों से चली आ रहीं (कु)रीतियाँ हमारा नारित्व स्थापित नहीं करती हैं।
ना हम सीमाओं में बंधना चाहते हैं, ना कभी चाहेंगे।
पर कलयुग है साहब! कुछ समाज के ठेकेदारों ने हमारा शोषण किया, हमें दबाना चाहा, पर वे शायद जानते नहीं कि हम वह बीज हैं जिसे जितना ज़्यादा दबाओगे वह उतना पनपेगा, उतना ही विशाल वृक्ष के रूप में उभरेगा।
समय ऐसा भी आया जब अपना हक माँगने पर हमारे पर काटकर हमें आसमान में उड़ने को कहा गया, यहाँ तक की अपनी क्षमता सिद्ध करने के लिए अग्निपरीक्षा भी देनी पडी़।हमने सब सहा, पर हम रुके नहीं। निरंतर अपने स्वाभिमान और सम्मान के लिए लड़ते रहे, बढ़ते रहे।
ऐसा बिल्कुल मत सोचिएगा कि इस 21वी सदी की विकासशील दुनिया में सब बदल गया है, अभी भी हमारा शोषण किया जाता है, टोका जाता है, रोका जाता है।
खै़र, ज़माना हमसे है, हम ज़माने से नहीं। काली भी बन जाऐंगें, गौरी भी बन जाऐंगें, समय आने दो सही, पुजारी भी बन जाऐंगें।
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