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पाठक जी की बहू (लघुकथा)












*माया दुबे*


पाठक जी के यहाँ हम लोग मिलने गये। वैसे तो उनके घर जाने की कोई जरूरत नहीं थी, उनकी पत्नी दिन में तीन-चार बार घर जरूर आती थी। बात-बात में अपने बहू की तारीफ करती रहती, वह देवर, ननंद सबका बहुत ख्याल रखती है, किसी के लिए पराठे, किसी के लिए इडली जिसकी जो फरमाइस होती जरूर पूरा करती। सिलाई, कढ़ाई, घर का काम सब में परफेक्ट है। यह सब सुनकर मेरा मुँह उतर जाता था क्योंकि दोनों बहुये बाहर काम करने जाती थी एक बैंक में, दूसरी शिक्षिका, सो पूरे घर की व्यवस्था दिनभर उन्हें ही देखना पड़ता था। ऊपर से पाठक जी की पत्नी दिनभर बहू की तारीफ करती तो मन में दबी हुई सास की इच्छा जोर मारने लगती। इतने में तन्द्रा टूटी सुमधुर ध्वनि कानों में पड़ी आप लोग कैसे हैं। चाय या नींबू पानी क्या लोगें। हम लोगों ने मना किया, बेटा अभी खाना खा कर निकले हैं। पाठक जी की बहू ने धीरे से कहा आप की बहू कितनी भाग्यशाली है, आप जैसी सास मिली है, जिन्हें काम करने का मौका मिला है, मैं तो एम.एस.सी गोल्ड-मेडलिस्ट हूँ, पर शादी के समय मम्मी ने कहा था, एक सुघड़ बहू का दर्जा ही तुम्हारा गोल्ड मेडल है, तब से अपनी डिग्री आलमारी में रख दी हूँ। हम लोग एक टक पाठक जी के चेहरे को देख मन का भाव पढऩे का प्रयास करने लगे।


*माया दुबे,भोपाल












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