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मैनाबाई का जौहर (उपन्यास अंश)











*डॉ प्रतिभासिंह*


मैं इतिहास की आंखों में देख रही हूं।उफ़ कितनी पीड़ा है इसकी आंखों में।रोते -रोते आंखें सूझ गई हैं ।अश्रु हैं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे।रोये भी तो क्यों नहीं आखिर उसके पन्ने पर लगे घावों की पीड़ा भी तो असह्य है।तीर, तलवार और गोलाबारूद से उसके पन्ने रूपी शरीर पर असंख्य चोटें जो हो गई है।जगह- जगह से रक्त के फब्बारे फूट रहे हैं ।फिर भी वह मूकदर्शक बना हुआ है,क्योंकि इसकी नियति ही यही है।पुरुष की महत्वाकांक्षा ने पूरे इतिहास को रौंदा है।परन्तु असल पीड़ा तो यह देखकर होती है कि उसके उन्मादों का परिणाम स्त्री को ही भोगना पड़ता है।सच तो यह है कि कुछ अपवादों को छोडकर इतिहास की परपरिश में स्त्री का कोई योगदान नहीं है।तभी तो इतिहास रक्ततन्जित हुआ,क्योंकि तब वह पूरी संवेदनाहीनता से अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में जुटा रहाऔर अपने पीछे एक क्रूर निर्दयी कहानी छोड़  गया।हां,हिंसा का परिणाम तो हिंसा ही होगा न।


मैं देख रही हूँ ,भारत के समृद्ध अतीत को।जब यह विश्वभर में चर्चा का केंद्र हुआ करता था।आहपरन्तु यश- वैभव और सौंदर्य कहाँ स्थायी रह पाता है।भारतवर्ष को नजर लग गई।7वीं सदी के पूर्वार्ध में जब मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में इस्लाम की आंधी चली तो उसने विश्व की कई महान संस्कृतियों को नस्तेनाबूत कर दिया।भारत जैसी समृद्ध सभ्यता संस्कृति वाला देश भी इस्लामी आंधी से न बच सका ।प्रथम प्रमुख अरब आक्रमण 712 में मुहम्मद बिन कासिम नामक एक 17 वर्षीय युवक के द्वारा किया गया।यह इराक के गवर्नर अल हज्जाज का भाई और दामाद था।आप सोच रहे होंगे मैं अपनी कहानी न कहकर कासिम पर क्यों मेहरबान हूँ।तो बात यह है कि दरअसल भारत में जौहर को एक परंपरा का रूप कासिम के आक्रमण से ही मिला,और मैं उन तमाम वीरांगना औरतों के बारे में बताना चाहती हूँ जिनका हमारे इतिहास के पन्नों में नाम तक नहीं दिया जाना उचित समझा जाता।


कासिम के आक्रमण के समय सिंध पर दाहिर शासन कर रहा था।सिंध की राजधानी अरोर थी जबकि रावर और ब्राह्मणावाद इसके प्रमुख शहर थे।मैं अतीत के गर्भ में स्पष्ट देख पा रही हूँ--कासिम की सेना ने रावर को चारों ओर से घेर लिया है।यद्यपि की दाहिर पूरी ताकत से लड़ रहा है।पर अब उसके पैर उखड़ने लगे हैं।इस रक्तिम युद्ध को देखकर सूरज को भी उबकाई आने लगी है ।वह उदास होकर अपनी किरणे समेटने की तैयारी में है।युद्ध के परिणाम से भयभीत दाहिर अपनी पत्नी महारानी मैनाबाई के कक्ष में प्रवेश करता है।उसके चेहरे पर चिंता के भाव साफ झलक रहे हैं।वह घबराहट भरे स्वर में मैनाबाई से कह रहा है -


"महारानी शीघ्र करिए, हमारे पास समय नहीं है।आप रानीबाई और सूर्या ,परमाल को लेकर गुप्तमार्ग से ब्राह्मणावाद चली जाइये।रात में छिपते -छिपाते रावर पार कर लेंगीं।"


रानीबाई तलवार पर अपने दाहिने हाथ के अँगूठे को रखकर उसकी धार परखते हुए बड़ी सहजता से कहती हैं-


"आप यह क्या कह रहे हैं?मैं आपको शत्रुओं के हवाले करके खुद मैदान छोड़ दूं।नहीं,ये मुझसे न होगा।मैं शत्रुओं का सामना करूँगी।आप रानीबाई और सूर्या, परमाल को लेकर चले जाइये।आप सुरक्षित बचे रहे तो रावर पुनः हमारा होगा।"


"किन्तु महारानी यह भारतीय सभ्यता की विशेषता तो नहीं है कि पत्नी को शत्रु के बीच छोड़कर पति पलायन कर जाए।"


"किन्तु मैने आपको पलायन करने के लिए कब कहा?आप जीवित रहेंगे तभी सिंध बचेगा अन्यथा सबकुछ नष्ट हो जाएगा।"


हाँ,बिल्कुल ऐसे ही उस दिन पति -पत्नी में काफी देर तक बहस हुई थी।एक दूसरे का जीवन बचाने हेतु प्रेमयुद्ध ।परन्तु अंत में जीत मैनाबाई की हुई और राजा दाहिर अपनी दूसरी पत्नी रानीबाई तथा दोनो पुत्रियों सूर्या, परमाल को लेकर गुप्त मार्ग से ब्रह्मणावाद के लिए निकल जाते हैं।


परन्तु जाने से पहले दाहिर ने अपनी प्रिय पत्नी को डबडबाई आँखों से देखा था।जो मौन होकर भी बहुत कुछ कह रही थीं।क्योंकि कहने के लिए होठों के पास शब्द नहीं थे और शब्दों के पास समय नहीं था की वह होंठों तक आएं।बस,क्षणभर का मूक वार्तालाप और जीवनभर की जुदाई।परन्तु बहादुर मैनाबाई ने एक बूंद भी आंसू नहीं गिराए  ।इस समय तो उन्हें अपनी कर्मभूमि की चिंता थी,अपनी लाखों निर्दोष जनता की चिंता थी ।जिन्हें विधर्मी बड़ी ही क्रूरता से रौंद रहे थे।


दाहिर रानीबाई और सूर्या परमाल को लेकर निकल चुके थे परन्तु निकलने से पहले वह अपने पीछे मैनाबाई के सहयोग हेतु 15000 सैनिक छोड़ गए थे।परिवार को विदा कर लेने के बाद मैनाबाई ने कमर कस ली अब उन्हें या तो मरना था या फिर मरना था।उस वीर नारी ने उन 15000 बहादुर सैनिकों और अपनी वीरांगना सहेलियों को लेकर खुद को किले में कैद कर लिया।क्योंकि प्रत्यक्ष युद्ध में कासिम की बड़ी और प्रशिक्षित सेना के सामने रानी के मुट्ठीभर सैनिक कहीं न टिकते।फिर दोनो पक्षों के मध्य  घमासान युद्ध हुआ।रानी ने किले के अंदर से ही दुश्मन पर तीर ,भाले ,पत्थर और कटीली वृक्ष की टहनियाँ फेंकने का आदेश दिया।इस तरह से युद्ध तीन दिन तक चलता रहा और अंततः रानी के अधिकार सैनिक मारे गए।किले की युद्ध सामग्री और भोज्य पदार्थ भी खत्म हो गए।तब चौथे दिन रानी ने मुट्ठी भर बचे हुए सैनिकों को बुलाकर कहा- 


"मेरे प्रिय वफादार साथियोंआपकी देशभक्ति पर कोई सन्देह नहीं।किन्तु जबतक हमारी एक भी सांस शेष है खुद पर दुश्मन को हावी नहीं होने देना है।मेरे भाइयोंअबतक हम बहने इस यज्ञ में आपके साथ थी किन्तु अब,हमारा मार्ग अलग हो जाता है।आप किले का फाटक खोलकर दुश्मन पर टूट पड़ो और जबतक अपने एक -एक भाई की जान के बदले 10 जान न लो तुम्हें मृत्यु का वरण करने का अधिकार नहीं है ,और अब इसके पहले की वे विधर्मी किले का फाटक तोड़कर अंदर प्रवेश करें ।हमारे शरीर को अपने रक्तरंजित हाथों से छूकर दूषित करें ।हम सभी बहने स्वयं को अग्नि देव को आहुति देकर इस युद्ध का समापन करेंगी।"


यह सुनते ही सैनिक पुनः ऊर्जा से भर गए और "महारानी की जय हो"के उदघोष के साथ ही वे किले के फाटक की ओर बढ़ चले।


 इधर फाटक टूटने से पहले ही मैनाबाई ने घृत ,तेल ,लकड़ी और रुई की चिता सजाकर अपनी वीर सखियों के साथ जौहर कर लिया।मैं देख रही हूँ, एक भी वीरांगना रोइ नहीं ,किसी की आंखे डबडबाई नहीं।बस मूक होकर एकदूसरे को देखा अपने पति और परिवार का स्मरण किया फिर आंख बन्दकर धधकती चिता में प्रवेश कर गईं। जैसे उन बहादुर रमणियों के लिए यह चिता नहीं फूलों की सेज हो।इन सभी के मन मे एक संतुष्टि थी की कम से कम वह सिंध पर बोझ नहीं थी।उन्होंने भी मातृभूमि के ऋण अदा किया।भले ही विजयश्री हाथ न लगी हो परन्तु वह सब कायर की मौत नहीं मर रहीं हैं।जब-जब भारत का इतिहास लिखा- पढा जाएगा उनका नाम वीर योद्धाओं में गिना जाएगा और उनके लिए यही बहुत है।


हाँ मुझे यह कहते तनिक भी हिचकिचाहट नहीं है कि, भारतभूमि पर हुए इस प्रथम जौहर की लपटें ,इतनी तेज और भयावह थीं कि उन्होंने अपने साथ सिंध के समृद्ध भाग्य को भी जला दिया ,और फिर मैनाबाई की चिता से उठी भयानक लपटों से मैं भी कहाँ बची थी। 16000 राजपूत रमणियों के साथ स्वयं को अग्नि देव को होम कर दिया था।पर सच तो यह है कि मैं आज भी पश्चाताप की अग्नि में जल रही हूँ और हर घड़ी यही सोचती हूँ कि मैं क्यों न मैनाबाई से सीख ले पाई,जब मरना ही था तो मारकर मरती।क्यों उस दुष्ट खिलजी के सीने में खंजर न उतार पाई ।यदि मेरे हाथ दुश्मन के एक भी सैनिक को मारकर उसके रक्त से पवित्र हो जाते तो आज तक मेरी आत्मा को इस चित्तोड़गढ़ में ऐसे भटकना न पड़ता।मेरी आत्मा दुःखी है,बहुत दुःखी ।मैं चित्तोड़ किले की प्राचीर पर बैठी हुई उन कारणों को तलाशने में जुटी हूँ जिनके कारण बुद्ध और महावीर की भूमि पर लाशों के अम्बार लग गए।आखिर वह कौन से कारण थे जब "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः "की पोषक महान सनातनी सभ्यता पर क्रूरता हावी हुई?


  (उपन्यास "पद्मावती की पीर"का एक अंश)


  *डॉ प्रतिभासिंह, किशुनपुरा मो.न.8795218771











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