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खादी वस्त्र नहीं, विचार है (लेख)











*विष्णु बैरागी*


काँग्रेसी हतप्रभ हैं। चौकड़ियाँ भूले हुए हैं। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा है। काँग्रेसियों को न तो अपने पर भरोसा रह गया है न ही अपनेवालों पर। घर छोड़कर जानेवालों के काफिले बन रहे हैं। कोई नहीं जानता कि अगले पल क्या होगा। सामने मोदी हैं जो सब पर भारी पड़ रहे हैं। उनकी खूबी है - एक भी वादा पूरा नहीं करना और एक भी इरादा अधूरा नहीं छोड़ना। झूठे-लफ्फाज वादों और सच्चे-पक्के इरादोंवाले मोदी जब 'काँग्रेस-मुक्त भारत' की बात करते हैं तो सहज जिज्ञासा होती है कि वे वादा कर रहे हैं या इरादा जता रहे हैं?


ऐसे में स्वर्गीय श्री राजेन्द्र माथुर याद आते हैं। उनकी मान्यता (थिसिस) थी कि काँग्रेस कोई पार्टी नहीं, देश का चरित्र, देश का स्वभाव है। जिसे भी राज करना होगा उसे काँग्रेस बनकर ही राज करना होगा। रज्जू बाबू की यह बात हम सच होते देख ही रहे हैं। मोदी-शाह के नेतृत्ववाली भाजपा, काँग्रेस की सारी विकृतियाँ आत्मसात करने को आतुर-अधीर, चेष्टारत है। काँग्रेस को खलनायक साबित करते हुए खुद काँग्रेस बनने का यह उपक्रम सचमुच में रोचक है।


लेकिन इसके बरक्स एक उपमा और बरबस याद आ जाती है जिसमें काँग्रेस को फिनीक्स पक्षी कहा जाता है। फिनीक्स यूनानी कथाओं में वर्णित अमरपक्षी है जो खुद ही खुद को जला देता है और अपनी राख में से फिर जन्म ले लेता है। फिनीक्स की आयु पाँच सौ से पाँच हजार वर्ष तक की मानी जाती है। अपनी राख से जन्मा नया फिनीक्स अपना पूरा जीवनकाल लेकर आता है। काँग्रेस का इतिहास फिनीक्स की ही याद दिलाता है। 


एक ओर मोदी के वादे-इरादे और दूसरी ओर फिनीक्स जैसा इतिहास। अगले पल की काँग्रेस कैसी होगी? होगी भी या नहीं?


यही सोचते-सोचते दो घटनाएँ याद आ गईं। एक मेरी उपस्थिति में और दूसरी, नारायण भाई देसाई की सुनाई हुई। नारायण भाई देसाई ने सन् 2008 में इन्दौर में पाँच दिवसीय (08 से 12 अगस्त तक) 'बापू-कथा' बाँची थी। यह घटना नारायण भाई ने, 11 अगस्त 2008 को सुनाई थी ।
बम्बई के एस्पलेनेड (आज का आजाद मैदान) में गाँधीजी की सभा चल रही थी। मैदान भरा हुआ था। लोगों का आना-जाना बना हुआ था।
भीड़ के अन्तिम छोर पर, पीछे खड़ी एक महिला ने दूर खड़े एक सज्जन को इशारे से अपने पास बुलाया। उन सज्जन ने अपने आसपास देखा और इशारे से ही पूछा - 'आप मुझे बुला रही हैं?' महिला ने इशारे से उत्तर दिया - 'हाँ। आप को ही।' असमंजस में पड़े, सकपकाते हुए वे सज्जन उस महिला के पास पहुँचे और फिर पूछा - 'आप मुझे ही बुला रही थीं?' महिला ने कहा - 'हाँ। आपको ही तो बुला रही थी।' सुन कर सज्जन ने प्रयोजन पूछा। उत्तर में महिला ने रुमाल में बँधी एक छोटी सी पोटली उन सज्जन के हाथों में रख दी और कहा - 'गाँधीजी की सभा में आई हूँ। गहने पहन कर बैठने में संकोच हो रहा है। पता नहीं घर लौटना कब हो। इस रूमाल में मेरी सोने की चूड़ियाँ और कानों की झुमकियाँ हैं।' उसने अपना नाम और विले पारले का अपना पता बताते हुए उन सज्जन से अनुरोध किया कि वे पोटली उसके घर पहुँचा दें।
सज्जन को कुछ समझ नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि न तो वे महिला को जानते हैं और न ही महिला उन्हें। ऐसे में वे अपने गहने उन्हें कैसे सौंप सकती हैं? महिला ने कहा - 'क्यों कि मैं जानती हूँ कि आप ये गहने मेरे घर पहुँचा देंगे।' सज्जन ने पूछा - 'आप मुझे नहीं जानतीं। फिर भी इतना विश्वास कैसे कर रही हैं? आपके घर पहुँचाने के बजाय यदि मैं ये गहने अपने घर लेकर चला जाऊँ तो?' महिला ने कहा - 'आप ऐसा नहीं करेंगे।' सज्जन ने पूछा - 'क्यों नहीं करूँगा?' महिला बोली - 'नहीं। आप ऐसा बिलकुल ही नहीं करेंगे।' सज्जन को और आश्चर्य हुआ। पूछा - 'क्यों नहीं करूँगा?' महिला बोली - 'आप ऐसा कर ही नहीं सकते?'


अब सज्जन को आनन्द आने लगा था। पूछा - 'आखिर आप को इतना विश्वास क्यों है कि मैं ऐसा नहीं कर सकता?'


महिला बहुत ही सहजता से बोली - 'आप ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते। आपने खादी जो पहनी हुई है!'


अब वह घटना जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ।


इसी पाँच अक्टूबर को मैं इन्दौर में 'अभ्यास मण्डल' के मंच पर था। चार वक्ताओं में से एक वक्ता के रूप में। गाँधीजी पर बोलने के लिए। मध्य प्रदेश काँग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता के. के. मिश्रा अध्यक्षता कर रहे थे। वे खादी नहीं पहनते जबकि उनके लिए खादी पहनना सांगठानिक अनिवार्यता है। अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए उन्होंने एक घटना सुनाई।
मिश्राजी उन काँग्रेसियों में शामिल हैं जो आपातकाल में गिरफ्तार कर जेल में बन्द किए गए थे। जेल में उन्हें ए श्रेणी मिली हुई थी। इन्दौर का एक कुख्यात बदमाश उनकी सेवा में था। मिश्राजी के जेल-आवास में उसने अत्यन्त विनम्रता और निष्ठा-भाव से मिश्राजी तथा अन्य राजनीतिक बन्दियों की सेवा की।


जेल से छूटने के बाद एक सुबह मिश्राजी एक हनुमान मन्दिर के सामने खड़े हो, आँखें मूँदे प्रार्थना कर रहे थे। प्रार्थना समाप्त कर, मिश्राजी ने हनुमानजी को प्रणाम किया और चलने को उद्यत हुए। तभी किसी ने उनके पाँव छुए। मिश्राजी ने देखा, जेल में उनकी सेवा करनेवाला वही कुख्यात बदमाश उनके पाँव छू रहा था। मिश्राजी ने उसे आशीर्वाद दिया और उससे कहा कि जिला उद्योग केन्द्र के प्रबन्धक उनके (मिश्राजी के) मित्र हैं। उनसे कह कर वे उसे बीस-पचीस हजार का लोन दिला देंगे ताकि वह अपना कोई काम-धन्धा शुरु कर भले आदमी की जिन्दगी जी सके।


मिश्राजी की बात सुनकर उस कुख्यात बदमाश ने धन्यवाद दिया और कहा - 'भिया! सारे मामलों में बरी हो गया हूँ। एक केस बचा है। उसमें भी छूट जाऊँगा। मेरे खिलाफ कोई गवाही नहीं देगा। मैंने फैसला कर लिया है। मैं राजनीति में जाऊँगा। समाज सेवा करूँगा। आपने ध्यान नहीं दिया। मैंने वर्दी पहन ली है।' तब मिश्राजी का ध्यान गया - उसने खादी का कलफदार कुर्ता-पायजामा पहन रखा था। 


माइक पर मिश्राजी ने कहा - 'उसका हुलिया देखकर और उसकी बात सुनकर पहली बात जो मेरे मन में आई वह यह कि अब चाहे जो हो जाए, मैं जिन्दगी में कभी खादी नहीं पहनूँगा।' 


तालियाँ नारायण भाई देसाई के वक्तव्य पर भी बजी थीं और मिश्राजी के वक्तव्य पर भी बजीं। लेकिन दोनों तालियों की गन्ध समान नहीं थी।


इन दोनों कथाओं के बीच ही, कहीं न कहीं काँग्रेस और काँग्रेसियों की मुश्किलों का निदान है - बशर्ते, वे ईमानदारी से चिन्तन-मंथन करें। लेकिन यदि वे ऐसा करने की हिम्मत जुटा लें (जिसकी उन्हें अब आदत नहीं और मुझे सम्भावना नजर आती नहीं) तो उन्हें गाँधी का यह वाक्य याद रखना होगा - 'खादी वस्त्र नहीं, विचार है।'


विचारविहीनता से विचारवानता तक की यात्रा ही काँग्रेस को काँग्रेस बना सकती है।


*विष्णु बैरागी, रतलाम (म.प्र) मो 09827061799












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