*विजय कनौजिया*
चाहत में खोया मन ऐसे
राहत होगी इसको कैसे
रहे ख़यालों में डूबा ये
इसको समझाऊं मैं कैसे..।।
जरा भी कहना ये न माने
आज के प्रेम को ये न जाने
मेरी लाचारी न समझे
अब मैं इसे मनाऊं कैसे..।।
रीति प्रीति की बदल चुकी है
आज प्रेम की दुनिया में
फिर भी मन ये प्रेम को आतुर
अब मैं इसे रिझाऊं कैसे..।।
प्रेम आज निर्मित होता है
स्वार्थभाव के साए में
सच्चा प्रेम मिले किस्मत से
ये मैं इसे सिखाऊं कैसे..।।
चाहत में खोया मन ऐसे
राहत होगी इसको कैसे
रहे ख़यालों में डूबा ये
इसको समझाऊं मैं कैसे..।।
इसको समझाऊं मैं कैसे..।।
*विजय कनौजिया,ग्राम व पत्रालय-काही,जनपद-अम्बेडकर नगर (उ0 प्र0)
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