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तभी तो मैं तेरी  ही बिटिया कहाई(कविता)







*डॉ० प्रतिभा 'माही'*

 

जहाँ से हो प्यारे , पिता तुम हमारे ।

लाये जमी पर , दिखाए नज़ारे।

 

वो बचपन हमारा , बड़ा ही सलौना।

जो माँगा था हमने , वो पाया खिलौना।

 

सुनाई थी लोरी और काँधे बिठाया।

ले बाँहों के झूले में तुमने झुलाया।

 

पकड़ मेरी उँगली सिखाया था चलना

तुम्हें याद होगा हमारा मचलना।

 

करी जिद्द हमारी सदा तुमने पूरी।

यकायक बड़ी फिर हमारी वो दूरी।

 

कदम जब जवानी में हमने रखा था।

अज़ब ही अनौखा पिया इक चुना था।

 

बना मुझको दुल्हन बिठाया था डोली।

तभी बाउजी मैं पिया की थी होली।

 

सजा आशियाना चली में पिया के।

रहे संग बाती ज्यों अपने दिया के।

 

सबक तब तुम्हारा ही सब काम आया।

दुआओं से तुमरी घरौंदा सजाया।

 

सभी गुण तुम्हारे विरासत में पाये।

अमल कर तभी तो जहाँ जीत पाये।

 

न शिकवा शिकायत न कोई गिला है ।

मिला ना किसी को वो मुझको मिला है।

 

तभी तो लड़े हम अँधेरों से जाकर।

सिले ज़ख्म लाखों सदा चोट खाकर।

 

तुमी से है सीखा गुलों को सँजोना।

ख़ुशी के ये मोती भी चुन चुन पिरोना।

 

जमी से फलक तक सभी चाँद तारे।

गवाह बाउजी ये हमारे तुम्हारे।

 

है रब की ये रहमत ख़ुदा की खुदाई।

तभी तो मैं तेरी  ही बिटिया कहाई।

 

*डॉ० प्रतिभा 'माही' पंचकूला





 


 



 



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