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संयमी की परीक्षा (कहानी)















*कपिल शास्त्री*

"या निशां सर्वभूतानां तस्माद जागर्ति संयमी"अर्थात "जब सारी दुनिया सोती है तब संयमी जागता है। ये बात गीता में कृष्ण भगवान ने कही है।

विपुल जी बिस्तर पर लेटे लेटे मोबाइल में मगन थे।वो स्वयं संयमी तो नहीं थे परंतु संयम का एक भारी भरकम ढक्कन अवश्य लगाए हुए थे।यदा-कदा उठने वाले क्रोध के लावे को वो इसी संयम के ढक्कन से रोक कर रखते थे।पत्नी निशा दिल की आईना थी परंतु कुछ भी उधार नहीं रखती थी,सब कुछ मुँह के मुँह पर सुना देने वाली,गलत बात बर्दाश्त नहीं करने वाली,लड़ झगड़ कर उसी वख्त निपटा देने वाली फिर भूल जाने वाली।महीनों अबोला रखकर सबक सिखाने वाली ढीट औरतों जैसी मानसिकता नहीं थी।परंतु ऐसी भी शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस पत्निया ग़ज़नी फ़िल्म के संजय सिंघानिया की तरह पंद्रह बीस मिनट के लिए बहुत खतरनाक होती है।क्रोध की आंधी में स्वम्भू विश्लेषण करके आपको संसार का सर्वाधिक निकृष्ट,चरित्रहीन,घोर पापी,अत्याचारी साबित कर सकती हैं।वो समय आपने झेल लिया तो ठीक है।असली संयम की परीक्षा उसी समय होती है परंतु एक सामान्य स्वाभिमानी पति को क्रोध आ जाना भी लाज़मी है।विस्फोटक स्थिति भी निर्मित हो सकती है।

विपुल जी को लगता था कि ये संयम वाली आत्मरक्षार्थ पद्धत्ति उन्हें वार झेलते झेलते पीछे ही पीछे धकेले जा रही है और अब दीवार आ चुकी है व स्पेस नहीं बची है इसलिए अब डर बिन होए न प्रीति वाला फार्मूला अपनाना ही श्रेयस्कर रहेगा।कमजोर वार पलटकर आपको ही आहत कर सकते हैं इसलिए कभी कभी स्ट्रांग डोज़ की भी आवश्यकता बन पड़ती है।आगे अंजाम खुदा जाने।फिर ज्ञानी भी कह चुके हैं कि "अटैक इज़ द बेस्ट डिफेंस।"जब तक आप अपने आप को डिफेंस करते रहोगे अगली आप को कायर ही समझेगी और कायर आदमी ही जूठ भी बोलता है अतः आप विश्वसनीय भी नहीं समझे जाओगे।सच्चे आदमी के तो चेहरे पर ही एक अलग तेज होता है, वो तेज गायब हो जाएगा और आप कांतिहीन हो जाओगे।।स्त्री लोक में बहसबाजी को एक सम्माननीय दर्ज़ा प्राप्त है।

अहम से अहम टकराते,क्रोध की ज्वाला भड़क उठती और उसी ज्वाला में कुछ धूम धड़ाम के बाद अहम भी स्वाहा हो जाते।अत्यधिक संयम भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।कभी ये हावी तो वो संयमी बन जाता,कभी वो हावी तो ये संयमी बन जाती।कहना चाहिए कि संयम और क्रोध का प्रस्फुटन एक नियमित संतुलित साईकल में चल रहा था।विपुल जी को इस बात का भी बोध था कि अत्यधिक हावी होने से या किसी एक के हावी हो जाने से दोनो का ही व्यक्तित्व दब सकता है।

वाशिंग मशीन में कपड़े डालने के लिये जब जब बड़बड़ाती,बकबकाती पत्नी निशा आसपास से गुजरती तो संयम व तारतम्यता टूटती।आज धुलाई का दिन कुछ अजीब ढंग से मुस्कुरा कर मुँह चिढ़ा रहा था।जैसे वो जानता था कुछ अनिष्ट होने वाला है।क्रोध विवेक का नाश करता है और भौकने वाले कुत्ते काटते नहीं ये दोनों ही बातें किताबों में लिखी हुई हैं लेकिन अफसोस वो किताब कुत्ते ने तो नहीं पढ़ी इसी तरह क्रोध ने भी नहीं पढ़ी होगी कि वो विवेक का नाश करता है।विवेक बिचारे को भी नहीं मालूम होगा कि क्रोध उसका नाश करेगा।क्रोध अचानक से हमला करता है और विवेक को नष्ट करता है या पहले विवेक नष्ट होता है तब क्रोध आता है ये भी अंडा पहले आया या मुर्गी जैसा प्रश्न है।भौकने वाला कुत्ता काट भी सकता है और क्रोध विवेक ला भी सकता है।कुछ भी संभव है।कुछ भी पढ़कर हमे जजमेंटल नहीं हो जाना चाहिए।

एक पेंट उठाये जाने के दौरान जेब मे रखे सिक्के फर्श पर गिरकर छनछना उठे।अकस्मात बज उठी इन स्वर लहरियों से आपा खो बैठी निशा हावी हो चुकी थी।"पेंट की जेब मे डालकर रखते हो!"

आज तो विपुल जी के दिमाग की नसें फड़फड़ाइं और उफनते लावे के साथ संयम का ढक्कन उछलकर अंतरिक्ष मे पहुँच गया।अंजाम की परवाह किये बगैर उठकर एक थप्पड़ जड़ दिया गया।

चंद पलों की शांति बा-आवाज़े बुलंद एलान कर रही थी कि इस थप्पड़ की गूँज अब तुम्हे बरसों सुनाई देगी।निशा भी चुपचाप सहन करने वाली अबला नारी नहीं थी।तीनों लोकों में हाहाकार मचाना था।ग़ज़ब की ऊर्जा का संचार हो चुका था।जैसे अब तो ईंट से ईंट बजाने का वख्त आ चुका है।जैसे शरीर के पोर पोर खुल चुके थे,सर्वाइकल स्पॉन्डोलाइटिस,बदन,सर,पीठ दर्द,थाइरोइड,पेट की गड़बड़ी जैसे छोटे मोटे रोग तो छू मंतर हो चुके थे।ऐसा लगा जैसे किसी बेरोजगार को रोजगार मिल गया है।अब तो अभिव्ययक्ति की स्वंतंत्रता का भरपूर आनंद लेने का और पुरुषों के अत्याचारों के खिलाफ मोर्चा खोलने का वक्त आ चुका है। 

एक्यूपंक्चर नामक चीनी उपचार पद्धत्ति के उदय के बारे में पढ़ा था कि राजा महाराजाओं के जमाने मे जब कोई किसी तीर से घायल हो जाता था तो उसके कोई पुराने रोग ठीक हो जाते थे।इसी सिद्धान्त  पर गौर करके इस सुई चुभाने वाली पद्धत्ति का अविष्कार हुआ था जो आज बहुत सफल है।यहाँ भी एक दैवीय संचार शक्ति का सूर्योदय देखा जा सकता था।एक हॉलीवुड फिल्म में भी देखा था कि कुछ कीटाणु ऐसे थे जिनकी कॉलोनी पूरे शहर को घेरकर छत्ता बना लेती हैं।सेना स्थिति को अपने नियंत्रण में ले लेती है और एक वैज्ञानिक की टीम को भगा देती है।जब सेना उन पर गोलियाँ दागती है तो वो और बढ़ जाती हैं।वैज्ञानिक एक प्रयोग करके जान लेता है कि आग से ये और बढ़ेंगे और शैम्पू से ही नष्ट किये जा सकते हैं।अफसोस यहाँ ऐसा कोई शैम्पू वेम्पू नहीं है।

पहला फ़ोन बड़ी बहन के लोक पहुँचा आज बातचीत का विषय अलग था,एक सनसनीखेज खबर देनी थी।रोज़मर्रा में तो थोड़ी देर बाद दोनों धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र,अध्यात्म की और मुड़ जाती थी जैसे मानो या न मानो भगवान की लाठी में आवाज़ नहीं होती वगेरह,वगेरह।फ़ोन उठाये जाने के उपरांत ही रुदन आरम्भ किया गया।जैसे गीतों में चलते हुए संगीत के एक मोड़ पर ही मुखड़ा व अंतरा उठाया जाता है।

"अरे क्या हो गया?"रुदन से शुरू होने वाले मुखड़े को सुनकर पूछा गया।

"आज विपुल ने मुझ पर फिर हाथ उठाया,अब मैं अनाथ हो चुकी हूँ तो क्या कभी भी हाथ छोड़ देंगे!"द्रवित करता हुआ अंतरा प्रभावशाली बन पड़ा था।

"अरे नहीं,ऐसा नहीं बोलते,मैं हूँ न,मेरी बात करवाओ विपुल जी से,अभी राइट करती हूँ।"सात्वनारूपी पुचकार से पोषित निशा में शक्ति का संचार हुआ और मोबाइल यंत्र ब्रह्मास्त्र की तरह आगे करते हुए बोली "लो अब हिम्मत है तो बात करो मेरी बहन से।"

"विपुल जी,खबरदार जो मेरी बहन पर हाथ उठाया तो,एक दो पुरस्कार क्या मिल गए अपने को बहुत बड़ा लेखक समझने लगे हैं,मैं आपको पूरे सोशल मीडिया पर बदनाम कर दूंगी,आपकी ये आदरणीय विपुल जी वाली छवि धूमिल करके रख दूंगी।"आमतौर पर सभी की व्यथा सुनने के बाद ये निष्कर्ष निकालने वाली सत्संगी सलज कि "सब इंसान के कर्मो का ही फल है"आज अपनी बहन के मामले में घोर असंयमी होकर उजागर व उग्र हो चुकी थी।अब ये उनकी बहन के कर्म नहीं थे बल्कि विपुल जी के दुष्कर्म थे जिसकी सज़ा मिलेगी और बराबर मिलेगी।

"पहली बात तो यह है कि मैंने आजतक किसी से आदरणीय बोलने के लिए नहीं कहा,आपकी ये बहन सिर्फ अपना पक्ष रखती है और राई का पहाड़ बना देती है।और दूसरी बात ये है कि हम साहित्यकारों की छवि धूमिल करना इतना आसान नहीं है क्योंकि हम लोग ही एक दूसरे की प्रशंसा,आलोचना और समीक्षा करते हैं।वैसे भी आजकल लेखक,लेखिकाएँ,कवि,कवियित्रियों की भरमार है और आलोचक कम हैं।आजकल मैंने आलोचना में भी हाथ-पैर आजमाना शुरू कर दिए हैं इसलिए मेरी छवि और स्ट्रांग हो गयी है।विपुल जी की दलील पर ज्यादा से ज्यादा डिसकस करने की सलाह दी गयी।वैसे भी महिलाएं इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि बहस में उनसे कोई नहीं जीत सकता इसलिए इसी शस्त्र के इस्तेमाल की सलाह देती हैं।

छोटी बहन के लोक में भी इस हिंसात्मक कृत्य की घोर निंदा की गई।

इंग्लैंड वाली मामीजी का जवाब "लीव हिम"तो मालूम ही था इसलिए उस लोक से संपर्क नहीं किया गया।भारतीय परंपराओं के विरुद्ध एकदम इतने मुँहफट तरीके से छोड़ देने के निष्कर्ष पर पहुँच कर समस्या का समाधान कर देना तो निशा को पहले भी रास नहीं आया था।इसमे तो अगर दुश्मन साईं को ऐसे ही छोड़ दिया तो तलेंगें कैसे।कोई सहानुभति भी प्रगट नहीं की गई थी।बहस मुबाहिसे का चांस ही खत्म हो गया था।

तीसरा लोक सबसे ज्यादा संवेदनशील था जिसका निष्कर्ष ये निकला कि अब बेटी तुमसे बात नहीं करेगी।तीनों ही बार जोरदार प्रस्तुतिकरण से भरपूर सहानुभूति बटोरी गयी।अपनो में अपने को अपनो द्वारा घेरकर विवश करने में जो जीत की खुशी मिलती है उससे भी मन के घाव भर जाते हैं।

"लेखक मैं हूँ लेकिन संवेदना और मार्मिकता जगाने में तुम्हारा कोई जवाब नहीं,सारे दिन बड़बड़,बड़बड़ और जब पिट जाती हो तो इस अड़तालीस की उम्र में बड़ी अनाथ बन जाती हो,वर्षों पहले गुजरे माँ बाप को याद करके हम आज नहीं रो सकते लेकिन तुम उस बात को इस बात से जोड़ देती हो,ऐसे तो मैं भी अनाथ हूँ पर मेरा क्या!"विपुल जी ने अपना पक्ष रखा तो एक धमकी और मिली-"अगली बार फोन पुलिस स्टेशन पहुचेगा,समझे।"

"अच्छा है एक रात लॉकअप में बिताऊंगा,वहाँ कम से कम तारतम्यता तो नहीं टूटेगी।"विपुल जी ने चुनोती स्वीकार करते हुए फरमाया।

"तुम्हारी तारतम्यता को तो मैं तार-तार कर दूंगी।"निशा फिर हावी थी।विपुल जी भड़भड़ाते,फुनफुनाते हुए घर से बाहर निकल गए।शांति की तलाश में घर के पास ही स्थित पार्क में पहुंच गए जहाँ चलने के लिए 500 मीटर का एक सीमेंटेड ट्रैक भी बना हुआ है।कुछ बेंचेस भी लगी हुई हैं।बच्चों के खेलने के लिए सी-सॉ और हॉरिजॉन्टल घूमने वाला झूला भी है।एक बेंच पर कुछ दूरी बनाकर एक वृद्ध और वृद्धा कुछ सत्संग कर रहे थे।विपुल जी क्रोध की अग्नि में ट्रैक पर तेज तेज चलने लगे।वह जब भी एक राउंड पूरा करके आते यह सुनते की वृद्धा की  अनेक बातों का वृद्ध के पास एक ही जवाब था "सब भगवान की महिमा है।"चार पाँच राउंड के बाद वह भी एक बेंच पर बैठ गए।"भगवान की महिमा चलती रही। वह सोचने लगे "है भगवान जब सारी दुनिया सोती है तो संयमी जागता है परंतु तब पत्नी भी सो जाती है इसलिए रात में संयम बरतना आसान है,असली संयमी तो हम दिन में कामकाज करने वाले ही हैं।"

पार्क में एक परेशान सा युवा मोबाइल पर एक ही गीत "मुझे छोड़ दो मेरे हाल पर,ज़िंदा हूँ यार काफी है"बार बार सुन रहा था।विपुल जी उसे देखकर फिर विचारमग्न हो गए।"अरे यही तो हमारे महान भारत देश के सामाजिक ढांचे की खूबी है कि कोई किसी को भी उसके हाल पर ऐसे ही बीच रास्ते मे नहीं छोड़ देगा।कोई न कोई सलाह,मशविरा तो देकर ही छोड़ेगा।ज़िंदा होना ही तुम्हारे लिए काफी है!कितनी निराशाजनक मानसिकता है।युवावस्था में ज्यादा दखलंदाजी पसंद नहीं आती ये तो सच है परंतु भविष्य एवं सुखद वैवाहिक जीवन के लिए कुछ दखलंदाजी की आदत भी डाल लेनी चाहिये।

उन्होंने देखा एक सी-सॉ पर दो पांच छह वर्षीय बच्चे खेल रहे थे।जो बच्चा ऊपर पहुंचता वो खिलखिलाकर हँसता फिर नीचे वाला अपने पैरों से धक्का लगाकर ऊपर पहुँचता तो वह खुश हो जाता।दोनो संतुलन के साथ अपने अपने भार से इस उठापटक का आनंद लेते हुए एक दूसरे को खुश कर रहे थे।

थोड़ी देर में निशा का फ़ोन आ गया "कहाँ चले गए?"खाना बन गया है,आ जाओ।देखना एक दिन मेरी याद में खून के आँसू रोओगे।तड़पोगे फरियाद करोगे एक दिन मुझको याद करोगे।"

"आ रहा हूँ,थोड़ा संयम रखो।"उत्तर देकर विपुल जी उठ खड़े हुए और एक अंगड़ाई लेकर खुद से बोले "चलो भाई संयमी सब भगवान की महिमा है,अब पत्नी लोक चलते हैं,तीनों लोक अपने ही हैं,ये लोक तो बिचारे कुछ लिख नहीं पाएंगे सिर्फ धमकी ही देते रहेंगे,अब मैं ही कुछ लिखता हूँ और अब सिर्फ डिसकस करते हैं।"

 

*कपिल शास्त्री,भोपाल











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