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साझा परिवार(लघुकथा)


*महिमा वर्मा श्रीवास्तव*

घर के बाहर बरामदे में लटका बाँस का गोल झूला वसुधा जी को हमेशा से अतिप्रिय रहा है।उसी पर बैठ इंतजार करती आज वो यादों के झूले पर झूल रही हैं।

 

एक बरस पहले पति क्या साथ छोड़कर गये वो बेघर ही हो गयीं।कुछ दिन बेटी के यहाँ रहने के बाद बेटे की जिद से उसके पास विदेश चली गयीं ।बेटे की गृहस्थी में रचने-बसने का प्रयास कर ही रही थीं कि एक दिन देर रात को एकाएक उनकी नींद खुली तो बेटे और स्वदेश में बैठी बेटी की वीडियो-कालिंग से हो रहा वार्तालाप सुन वो हतप्रभ रह गयीं।बेटा अपने बच्चों की खातिर माँ को अपने पास रखना चाहता था और बेटी को घर खरीदने के लिये पैसे की जरुरत थी।दोनों योजना बना रहे थे कि किसी प्रकार माँ का घर बेच दिया जाये, तो माँ को मज़बूरी में विदेश में ही रहना होगा और मकान बेचने से मिले पैसे का दोनों उपयोग कर लेंगे।

वसुधा जी को बेहद दुःख हो रहा था।उनके जैसे कई बुजुर्ग होंगे, जिनके पास पैसा,घर सब होते हुये भी वो अकेले हो जाने पर पराश्रित होकर रहने पर मजबूर होंगे।

 

गाड़ियाँ रूकने की आवाज़ से उनकी तन्द्रा टूटी।उन्होंने दोनों बच्चों को सूचित कर दिया था कि घर का अंतिम निर्णय उन्होंने कर लिया है।पापा की बरसी के साथ ही उसको पूरा कर देंगी।

बेटे और बेटी परिवार सहित आ गये थे।सामान उतार कर अन्दर लाते हुए वो आश्चर्य से घर देख रहे थे।बाहर की खाली जगह पर नया निर्माण हो गया था।कुछ बुज़ुर्ग महिला -पुरुष वहाँ काम कर रहे थे.

बच्चों के साथ अन्दर आते हुए वसुधा जी ने कहा ''ये सब मिल कर अन्दर लाइब्रेरी ,मनोरंजन के सामान, डिस्पेंसरी आदि की व्यवस्था कर रहे हैं।'' 

''मगर क्यों ?''आश्चर्य से बेटा-बेटी दोनों ने एक साथ पूछा.

सब संपन्न बुजुर्ग हैं। बस हमख़याल साथियों की कमी है।कल तुम्हारे पापा की बरसी के साथ उद्घाटन होगा.,वसुधा जी ने समीप ही रखे एक बड़े बोर्ड की तरफ इशारा करते हुए कहा,जिस पर लिखा था

"हमख्याल-साथी निवास''

''ये सब यहाँ मेरे साथ एक साझा परिवार बनने जा रहे हैं।''

 

*महिमा वर्मा श्रीवास्तव*,भोपाल

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