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पुरस्कृत बेईमान (व्यंग्य कविता)


-मच्छिंद्र भिसे

 

शायद कलियुगी वक्त को,

समझने में मुझसे देर हो गई,

बेईमानों की रंगीन अदालत में,

ईमानदारी वारंवार सूली चढ़ गई.

 

पुरस्कारों की भरमार में आज,

चंद इमानी चेहरे खिल गए,

चंद छोड़ बचे सब बेईमानी,

कईयों के सपने खा गई.

 

बधाईयों की गहमागहमी में,

कोने में दुबकी सच्चाई रो पड़ी,

व्यंग्य हँसी से हर बेईमान की,

ईमानदारी अंतस्थल तक हिल गई.

 

षड़यंत्री वक्त में सच्चाई और अच्छाई,

शाबासी थाप इंतजार में बूढ़ी हो गई,

विडंबन देखो आज, एक चेहरा नकाबी,

इंच का सीना अपना सौ इंच का कर गई.

 

पुरस्कारों के बाजार में आज,

मुस्कानें रंगीन कभी बेरंग हो गईं,

'बेईमानी', दलालों के गाल गुलाबी,

ईमान की खाल लाल कर गई.

 

देख के सारा खेल छिछौना आज,

सारी ईमानी हवा निकल गई,

सच्चाई-खुद्दारी खुद के लिए रख बंधु,

बेईमानी कलियुग में हमें सीखा गई.

 

नामिनेशन भी तभी भरना प्रियवर,

जब हो धन अपार और सत्ता भी गहरी

बिन इसके सिर्फ तालियाँ ही ठोकते रहोगे,

'समझ' आज हिला-हिला मुझे समझा गई.

 

-मच्छिंद्र भिसे

सातारा (महाराष्ट्र)

मो. ९७३०४९१९५२

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