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मैं क्या जानू मंदिर-मस्जिद मेरा मजहब रोटी है(कविता)


-डॉ. पुष्पा चौरसिया, उज्जैन


मैं क्या जानू मंदिर-मस्जिद मेरा मजहब रोटी है 


जिन पेड़ों के नीचे मैंने राते कई बिताई हैं


उन्हीं पेड़ पर पैसों खातिर आरी आज चलाई है 
वक्त जरूरत पर हो जाती सब की नियत खोटी है 
मेरा मजहब रोटी है 


मंदिर में ना गया कभी मैं नहीं चर्च में पैर धरा 
बाहर सीढ़ी बैठ भीख के पैसों से ही पेट भरा 
सर्दी-गर्मी में मेरे तन रहती सिर्फ लंगोटी है
मेरा मजहब रोटी है 


मुस्लिम को देता दुआएं हूं हिंदू को देता आशीष 
मेरे लिए सभी दाता हैं कभी न करता मैं तफ्तीश 
मेरे मन में सबकी इज्जत कहीं बड़ी ना छोटी है 
मेरा मजहब रोटी है 


कभी-कभी भरपेट मिले तो हॅस त्योहार मनाता हूं 
लिए कटोरा दूजे दिन से चौखट चौखट जाता हूं 
मेरे लिए लानत भी तो शिव शंकर की बूटी है 
मेरा मजहब रोटी है 


मैं क्या जानू मंदिर मस्जिद मेरा मजहब रोटी है 


-डॉ. पुष्पा चौरसिया, उज्जैन


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