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लक्ष्य पर ध्यान देना साधना है(लेख)


*बलजीत  सिंह*
हीरा कोयले की खान से प्राप्त होता है , परंतु उसको पाना इतना आसान नहीं होता । उसे पाने के लिए , उसके बारीक- बारीक कणों को इकट्ठा करके , शुद्ध किया जाता है अर्थात उसकोअच्छी तरह से चमकाने या सुंदर बनाने के लिए तराशना पड़ता है । इसी प्रकार जीवन को अगर हीरे की तरह चमकाना है , तो ऐसी स्थिति में मनुष्य को साधना करनी पड़ेगी ।

लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कठोर से कठोर परिश्रम करना और उसमें समय -सीमा का ना होना , साधना या तपस्या कहलाती है । इसमें समय पर ध्यान न देकर , लक्ष्य पर ध्यान दिया जाता है ।

ठंडे पानी से कभी भाप नहीं निकलती , उसमें से भाप निकालने के लिए पानी को उबालना पड़ता है अर्थात पानी को गर्म करना पड़ता है । इसी प्रकार लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को साधना करनी पड़ती है । रात -दिन एक करना पड़ता है , सुख-चैन त्यागना पड़ता है , तब जाकर हमारी इच्छाओं का तीर लक्ष्य पर लगता है ।

अधिक दिनों से , एक ही स्थान पर पड़े हुए पत्थर को टहलाना मुश्किल होता है , जबकि उसके समान भार वाले पत्थर को ,आसानी से टहलाया जा सकता है । इसका कारण यह होता है कि जो पत्थर कई दिनों से एक ही स्थान पर पड़ा है , वह धूल -मिट्टी में अपनी पकड़ मजबूत बना लेता है अर्थात् जमीन से अपनी पकड़ बना लेता है । इसी प्रकार सफलता को प्राप्त करने के लिए , साधना में भी ऐसी ही पकड़ है । जो व्यक्ति सच्चे मन से साधना करता है , वह जीवन में कभी हार नहीं मानता ।

" सहज पके सो मीठा " इस कहावत में वह सच्चाई है , जो प्रत्येक वस्तु पर लागू होती है । किसी फल को जब मसाले की सहायता से पकाया जाता है ; उसमें वह मिठास नहीं होती , जो धीरे-धीरे पकने में होती है । साधना भी इसी नियम का पालन करती है । जल्दबाजी में कोई भी उठाया गया कदम , हमारी सफलता में रुकावट पैदा कर सकता है ।

धागा चाहे कितना भी कमजोर हो , वह हाथ की कलाई पर बांधने के पश्चात अपना निशान अवश्य छोड़ता है । उसने जो निशान बनाया है , वह एक बंधन में रहकर बनाया है । कमजोर होने पर भी उसने अपनी साधना को नहीं छोड़ा । आखिर साधना के बल पर , उसने अपनी ताकत को हमारे सामने प्रकट करके दिखाया है ।

एक ही खेत में , चने के साथ-साथ जब सरसों बोई जाती है , वे दोनों फसलें एक साथ उगने लगती है ।उस खेत को दूर से देखने पर , वहां सरसों ही सरसों दिखाई देगी , क्योंकि चने का पौधा छोटा होता है और सरसों का पौधा लंबा । इसी प्रकार साधना और परिश्रम में यही अंतर होता है । परिश्रम तो समय के अनुसार किया जाता है , परंतु साधना की कोई समय - सीमा नहीं होती ।

धनुष विद्या सीखने के लिए सबसे पहले अभ्यास की जरूरत होती है और अभ्यास करते समय हमारा निशाना केवल लक्ष्य का केंद्र बिंदु होना चाहिये । उस केंद्र बिंदु पर निशाना साधते समय , धनुष में तीर डालना और लक्ष्य की ऊंचाई व लंबाई को ध्यान में रखते हुए , तीर को छोड़ना पड़ता है । बार-बार अभ्यास करने से , तीर निशाने पर लगना शुरू हो जाएगा । इसी प्रक्रिया के माध्यम से , उड़ते हुए पक्षी को तीर मारकर गिराया जा सकता है । आंखें बंद करने पर भी , आवाज पर निशाना लगाया जा सकता है ; परंतु ऐसा केवल मेहनत और लगन से होता है । यह साधना का ही  परिणाम है , जो बिना देखे आवाज पर तीर मारने में सफल होता है ।

लोहे का आकार बदलने के लिए ,  उसे आग में  पिघलाना पड़ता है । जब तक वह नहीं पिघलता , तब तक उसका रूप बदला नहीं जा सकता । इसी प्रकार जीवन के महत्व को समझने के लिए , मनुष्य को दुख - दर्द की आग से गुजरना पड़ता है । जो व्यक्ति इस आग से गुजर जाता है , उसकी साधना सफल हो जाती है ।

इस धरती पर जितने भी महापुरुष पैदा हुए , उनको साधना के माध्यम से ही प्रसिद्धि प्राप्त हुई । अत: साधना में वह ताकत है , जो मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है ।


*बलजीत  सिंह ,ग्राम / पोस्ट - राजपुरा  ( सिसाय ), जिला - हिसार - 125049  ( हरियाणा )मो० :09896184520


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