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मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या... (रिपोर्ताज) -अखिलेश श्रीवास्तव 'दादूभाई'


नवग्रहों की ऊर्जा के धधकते पिंड की रश्मियाँ अंधियारा चीरती धरा आलिंगन को दौड़ चुकीं हैं। इन स्वर्णिम किरणों से दसों दिशाएँ उजास पा रहीं हैं। निद्रित जगत जाग गया है। चहचहाते नभचरों के साथ न जाने कितने परिश्रमी लोग घरोंदों से निकल चुके हैं, दाना-पानी के लिए, रोज़ी-रोटी के लिए बोनी-बट्टा के लिए। अपने एक-एक श्रमसीकर को धन में परिवर्तित करने के लिए कि उन्हें रोटी-साग मिल सके कि परिवार भूखा न रहे कि चूल्हे के सामने बाल-आस खंडित न हो।

यह रिपोर्ताज समर्पित है स्लैब बनाने वाले अनगिनत श्रमिकों के ईमानदार श्रम को। देखिए, वे तैयार हैं आकाशीय अग्निकुंड को हराने के लिए। क्योंकि जब वे सूर्य की आग को हराएँगे तब ही बुझेगी उनके पेट की आग। इसके लिए भले ग्रीष्म की तपन से देह झुलस जाए, भले प्रकृति प्रदत्त रूप, कुरूप हो जाए, भले स्वाभिमान की हत्या हो जाए, भले कार्य-काल में तन पर लगीं चोटें रात्रि जागरण का कारण बनें; परंतु इन्हें तो चलना है, तपना है, लड़ना है, सहना है, जीवित रहने के लिए।

देखो! ये श्रमिक हैं! मज़दूर हैं! मज़ूरा हैं! कुली हैं! मोटिया हैं! या यों कहें कि ये मानव विकास के हाथ हैं। इन्हीं श्रमिकों के शुद्ध श्रम की फलश्रुति है विकासवादी सोच का व्यावहारिक रूप। यही तो विश्वकर्मा के कर हैं जो प्रातः 4-से-5 बजे उठकर दैनंदिन कार्यों से निवृत्त हो, घर की व्यवस्थाओं को सुनिश्चित कर, भोजन बना, अपना टिफ़िन उठाए ठीक 10 बजे खड़े हैं जबलपुर, कचनार सिटी, बाँके बिहारी पार्क के सामने कि आज उन्हें किसी के घर का स्लैब ढालन है; अपनी छत की चिंता भूलकर। ठेकेदार राजा ठाकुर ने कल ही इन्हें ठेका दिया है।

ये आस-पास के गाँवों के निवासी हैं। जिनमें से कुछ यहाँ किराए पर कमरा लेकर रहते हैं। शिवचरण उइके और धनो बाई धूमा से, विनीता पुत्र राहुल और भतीजे सूरज के साथ घँसौर से, नन्नी बाई मेरेगाँव से, दीपक ठाकुर बिजोई चारवाँ से, रज्जन चरगवाँ से, दीपक प्रधान बेलखाड़ू से, मिंटू लाल धुर्वे अपनी पत्नी रोशनी के साथ निवास से काम पर आया है। अभी शालाओं में ग्रीष्म कालीन अवकाश हैं। इसीलिए मिंटू-रौशनी की छोटी बेटी अनुष्का इनके साथ आई है तथा साथ हैं अन्य साथी।
गिनती में ये लगभग 20 हैं। कोई माँ-बेटे, कोई पिता-पुत्र, कोई भौजी-देवर, कोई गाँव-बंधु। कुछ-न-कुछ नातेदारी है सभी में। मन की आँखों से देखो तो आज शनिवार 15 जून 2024 को इन श्रमिक समूह का संबंध इस निर्मित होते भवन से जुड़ गया है।

वर्षों पूर्व चिंतन के क्षीर में डूबकर रामधारी सिंह 'दिनकर' ने मज़दूरों का परिचय कुछ यों दिया-

मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या,
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।
अंबर में जितने तारे उतने वर्षों से,
मेरे पुरखों ने धरती का रूप सँवारा।

आह! कैसा चुभता सत्य लिखा है हिंदी के भीष्म ने। श्वेत पृष्ठ पर लिखा कटु सत्य। धरा पर स्वर्ग-सा सौंदर्य बनाने वाले ये जादूगर छोटी, तंग गलियों से, मूलभूत सुविधाओं से विरत, संघर्ष के घोसलों में रहते हैं। क्यों...? कब तक...? क्या होगा...? इन प्रश्नों के उत्तरों से कोसों दूर।

ये प्रतिदिन 9 बजे लेबर चौक में एकत्रित हो जाते हैं जहाँ से प्रति वर्गफुट के हिसाब से स्लैब निर्माण के ठेके में इनका नियत अंश रहता है। रविवार छोड़कर सुबह 5 से शाम 7 तक यही दिनचर्या।

काम पर आने के बाद ये प्रतीक्षारत् हैं मिस्त्री और ठेकेदार के लिए। कोई गिट्टी के ढेर में बैठा-लेटा है तो कोई रेत के ढेर पर। यही तो इनके प्रतिदिन के आसन हैं। चर्चा के दौरान विनीता कहती है कि "हम लोग किसी के साथ परमानेंट काम नहीं करते; ऐसे में बंध जाते हैं। लेबर चौक से काम पर आने में पैसे भी अच्छे मिलते हैं और हम जब चाहें छुट्टी ले सकते हैं। हम स्वतंत्र रहते हैं। मर्ज़ी के मालिक।"

मैं हैरान, ठेकेदार के एक-एक संकेत पर उठने-बैठने वाले यहाँ तक की खाना भी उसी के निर्देशानुसार खाने वाले यह यांत्रिक मानव तुल्य, स्वतंत्रता का कितना सुखद मूल्य समझते हैं। इसी स्वतंत्रता के लिए तो हमारे देश के कितने क्रांतिवीरों ने अपना सर्वस्व राष्ट्रपथ पर समर्पित कर दिया। अमूल्य है यह स्वतंत्रता। इसका सम्मान हमारा कर्तव्य है।

सहसा शिवचरण गिट्टी पर लेटे-लेटे कहता है, साहब जी आप परमानेंट काम दिला सकते हो क्या? मेरा मन विचलित हो गया। परमानेंट अर्थात स्थायी कार्य...! मुझे स्मरण आया उच्च शिक्षा प्राप्त नौजवानों से लेकर अल्प शिक्षित श्रमिक तक सभी के सुख (इच्छा) का केंद्र स्थायी कार्य पाना है। अपनी नौजवानी में मैं भी तो भागता-दौड़ता रहा इसी स्थायी कार्य के पीछे, पर नहीं मिला और अंततः स्वरोजगार की शरण में इस जलादेने वाली दौड़ से राहत मिली।

मानव संसाधन प्रबंधन की शिक्षा लेने के बाद भी मैं और मेरे जैसे न जाने कितने साथी सभी लेबर चौक के श्रमिक जैसे ही तो थे, प्लेसमेंट एजेंसियों के चक्कर काटते। यह त्रुटि है कुछ हमारी शिक्षा प्रणाली की और बहुत कुछ हमारी सोच की। व्यर्थ है अनावश्यक स्थायित्व के अंधकुंड में समय की आहुति देना। आशा है, शिवचरण भी यह सत्य समझ ही जाएगा।

इन्हीं बातों में 11 बज गए। सभी मज़दूरों ने अपने-अपने टिफ़िन खोल लिए। उन्हें मुझसे बात करते-करते खाने में कोई संकोच नहीं है। मैंने सीखा कि एक साथ कई काम करना केवल प्रबंधकीय कौशल नहीं श्रमिक गुण भी है। किसी के डब्बे में रोटी-सब्जी है तो किसी के डब्बे में भाजी-भात, हरी मिर्च और अचार सभी के पास हैं। कुछ लोग प्याज़ भी रखे हैं। यह कभी आम आदमी की पहुँच की सब्ज़ी हुआ करती थी। आज बिचौलियों के कारण आम पहुँच से दूर हो रही है। वैसे हर सब्ज़ी का यही हाल है। अनियंत्रित मूल्य वृद्धि और किसान जस-का-तस।

थोड़ी ही देर में एक मोटर साइकिल यहाँ रुकी जिस पर ढलाई के औज़ार बाँधे एक व्यक्ति आया। पूछने पर पता चला यह इस स्लैब-समूह का प्रमुख है; राजमिस्त्री जीवन। इसके आते ही आड़े-तिरछे-पसरे श्रमिक सीधे तन गए, मानो कोई सेना नायक ने विश्राम के बाद सावधान करवाया हो। चल...! काए बाई? काए नई उठती रे...! ओ भैया रे...उते जुगाड़ बाँधो...! खाने के डिब्बों के बंद होने की खट-खट आवाज़ के साथ काम शुरू करने की टेर बता रही है कि शांत रूधिर में प्रवाह-गति तेज़ हो गई है।

देखा मैंने, रही-सही क़सर राजा ठेकेदार की एक आवाज़ ने पूरी कर दी। ''काए बाई...! तेहे अलग से न्यौता देना पड़े का...?" बस समझो राजाज्ञा हो गई और देखते ही देखते क्या-से-क्या हो गया। वो उधर जुगाड़ बंध गया इधर मेन गेट के सामने मिक्सर मशीन खड़ी हो गई।

प्रायः सभी श्रमिकों ने अपने कपड़े बदले हैं। स्त्रियों ने साड़ी के ऊपर एक पुरानी-सी शर्ट पहनी है और सिर पर सीमेंट की खाली बोरी को मोड़के टोपी बनाई है। इसकी आकृति देख मुझे नेपोलियन बोनापार्ट की आड़ी हैट याद आ रही है। कुछ लोग हाथों में रबर के कवर फ़साए हैं ताकि घमेला (तसला) उठाने में हाथ न छिलें।

सभी लोग अपनी-अपनी जगह मुस्तैदी से खड़े हैं कि कब संकेत मिले और सेंट्रिंग-लोहा बंधी इस अर्धनिर्मित छत को पूर्णता प्रदान करें। इसी पूर्णता के लिए तो ईशोपनिषद में लिखा है-

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

यह पूर्णता जीवन के कटु सत्य के सामने थोड़ी कमज़ोर पड़ती दिखी। 'निवास' निवासी दंपति, विवशता वश अपनी छोटी बच्ची को काम पर लाए हैं। रूखे केश, नीले रंग की ढीली-ढली स्कूल ट्यूनिक पहने, नंगे पाँव, आश्चर्य में डूबी आँखों वाली यह कन्या स्वयं में प्रसन्न है और माता-पिता निश्चिंत। यह कितना उचित है, कितना अनुचित यह विचार मेरे हृदय और मन को झकझोर गया।

यद्यपि गृहस्वामिनी द्वारा भोजन, फल, मीठा, बिस्किट और कुछ कपड़े उसे दिए गए तदपि वह घर के अंदर नहीं बैठी। दिनभर पोर्च में बैठी मोबाइल से खेलती रही या वहीं बोरी पर सो गई। मज़दूर की मजबूरी का यह दुखद पहलू है। ऐसे श्रम सेवकों के लिए क्या अतिरिक्त व्यवस्था हो सकती है? यह सरकार के साथ-साथ समाज को भी सोचना होगा। साथ ही इसके माता-पिता को भी सोचना होगा कि कोमल आँखों में मोबाइल दर्शन के आधिक्य से बहुत हानि हो सकती है।

साइट प्रारंभ से पूर्व नारियल, अगरबत्ती, लड्डू और नगदी के चढ़ावे को मुस्कुराते हुए स्वीकार करने के साथ मिक्सर ड्राइवर ने डीज़ल पंम की डोर ज़ोर से खींची और धाड़-धाड़-धाड़ की तीव्र ध्वनि के साथ मशीन चालू हो गई। इस ध्वनि को कहीं सुना है। याद आया! पहले टेंपो चला करते थे। उनसे भी यही आवाज़ आती थी। शालेय काल में न जाने क्यों हम बच्चे इसे भटसुअर कहते थे। देह परिवर्तित हो गई, पर आत्मा वही है। गड़-गड़ाता भूरा धुँआ छोड़ता डीज़ल इंजन।

इधर सूरज और राहुल एक लक्ष्य लिए मिक्सर में क्रमशः गिट्टी, रेत, और सीमेंट उड़ेल रहे हैं। उधर ठाकुर ने सामने ड्रम में भरे पानी से गारा तर किया और मशीन ने अपना काम आरंभ कर दिया। स्लैब (छत) का मसाला तैयार है लक्ष्य संधान के लिए।

तैयार मसाला साथी हाथ बढ़ाना की तर्ज़ पर एक हाथ से दूसरे, दूसरे-से-तीसरे फ़िर चौथे-पाँचवे से होता हुआ ऊपर जीवन मिस्त्री तक पहुँच गया। जिसे वह अपने अनुभव के अनुरूप छत पर डलवाने लगा। बीच-बीच में घड़-घड़ाता वाइब्रेटर इस मसाले को अच्छे से अंदर तक बिठा रहा है।

अब यह क्रम स्लैब पूरा होने तक चलेगा। ठेकेदार इस रथ का सारथी है। उसके निर्देशन और नियंत्रण में सभी कार्य हो रहे हैं। मुझे लगा जगत-चक्र भी तो ऐसे ही चलता है। सभी का निश्चित समय है। वही जीवन, वही जीवन पद्धति बस लोग बदलते रहते हैं।

घड़ी की टिक-टिक के साथ जिस प्रकार दिन समाप्ति की ओर बढ़ रहा है।उसी प्रकार ऊपर छत भी शनै:-शनै: पूर्णता की ओर बढ़ रही है। वैसे तो ये सभी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हैं, पर ध्यान से देखें तो ये परस्पर आश्रित हैं तथा इनका लक्ष्य एक है। हमारा जीवन भी तो ऐसा ही है। अलग-अलग मत-मतांतर होने के बाद भी परम उद्देश्य एक ही है। यह सत्य मेरे समक्ष प्रत्यक्ष है।

मध्यदिवस की बेला है। दिवा का तमतमाता, तपता, चिलचिलता स्वरूप तन को स्वेद से तर करने वाला है। इस चुभती तपन में भी स्लैब ढलाई निरंतर चल रही है। कुछ दूर सड़क पर एक बाई गिट्टी के बड़े ढेले तोड़ रही है। इस दृश्य को देख मुझे सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की रचना 'वह तोड़ती पत्थर' याद आ गई। विद्यार्थी जीवन में इसे केवल पाठ्यक्रम की दृष्टि से पढ़ा था। आज इस भरी दुपहरिया में उसकी सत्यता समझ आ रही है।

एक मज़ेदार बात। यांत्रिक कोलाहल के मध्य इनके बात करने की विधि मुझे तब पता चली जब मिक्सर मशीन के ड्राइवर ने मुझे आवाज़ दी। सामान्यतः इस हल्ले में बात करना कठिन होता है; परंतु जैसे गाँव में खेतों से किसी को बुलाने के लिए टेर या हाँके के साथ आवाज़ दी जाती है वैसे ही यहाँ हो रहा है। मुझे ड्राइवर ने कुछ ऐसे बुलाया- "हो...हो...ओ...भैयाजी...हो...!" आश्चर्य! मुझे उसका स्वर सुनाई दे गया। फिर पास आने के संकेत से उसने मुझे बुलाया।

उधर एक महिला श्रमिक जिन्हें रेजा कहा जाता है एक पुरुष श्रमिक अर्थात बेलदार से पूछ रही है, "का रे ओ भईया...रोटी खाबे का...? थोड़ा रोक दे रे...।" जब रेजाएँ चिल्लातीं हैं तो उनका स्वर कुछ अलग ही दबा निकलता है, जिसे कीकना कह सकते हैं। जैसे ही रेजा की बात जीवन मिस्त्री तक पहुँची वह गरज उठा, "हे... क्या रे... अभी खाओ थो न। फिन भूख लग आई!"

अबकी बार मिक्सर ड्राइवर ठाकुर भी रेजा के साथ हो लिया। "हओ तो भैयाजी थोड़ी रोक लो हो...बा टेम आधोई डब्बो खाओ थो।" अंततः स्लैब कार्य लगभग पंद्रह-बीस मिनिट के लिए रुक गया। फिर एक बार खाने के डब्बे खुले और शांत हुई लोगों की बुभुक्षा। हर जीव का एक ही तो लक्ष्य है जीवित रहना और इसके लिए आवश्यक है भोजन।

मानव कितना स्वार्थी है न! भूख के लिए, प्यास के लिए, निवृत्त होने के लिए चलना रोक देता है, गति छोड़ देता है। धन्य है हमारी धरा जो अनंत काल से चल रही है, घूम रही है। कोई बहाना नहीं है उसके पास रुकने का। उसकी गति ही हमारी साँसें हैं। धरती के इस ऋण से हम उऋण तो नहीं हो सकते, पर हाँ यह प्रयास अवश्य कर सकते हैं कि उसको किसी प्रकार की हानि न पहुँचाएँ।

कुछ देर बाद कार्य पुनः प्रगति पर था और सभी के मुख में तृप्ति के भाव। वो कहते हैं न, 'नहाए के बाल और खाए के गाल अलग ही दिख जाते हैं।' तिस पर गृहलक्ष्मी ने गर्मागरम चाय भिजवा दी। बस आनंद-ही-आनंद। ये मेहनती लोग छोटी-छोटी बातों में ख़ुशी ढूँढ़ लेते हैं।

चीखते-चिल्लाते, हँसी-ठिठोली करते, ये श्रम के पुजारी अपने आज के लक्ष्य को पा चुके हैं। अब थकान के लघु अंश इनके मुख पर हावी होने का प्रयत्न कर रहे हैं; लेकिन ये विजेता उन्हें कैसे जीतने दे सकते हैं। सभी अपने-अपने कार्य को समेट रहे हैं। दिवाकर भी इनके सम्मान में पीछे हट गया है और चंद्रमा शीतलता के थाल के साथ इनके स्वागत में खड़ा है।

दिनभर से जल आपूर्ति करती माकन में लगी पानी की मोटर ने एक बार पुनः अपनी प्रत्यंचा से जलधार प्रकक्षेपित की जिसके नीचे सभी श्रमशिल्पी हाथ-पाँव धोकर स्वच्छ हो गए और थकान मिटाने बाहर सड़क किनारे बैठ गए। अब वापसी की तैयारी है। तभी इस नव निर्मित छत की बहुरानी ने ससम्मान सभी को स्वल्पाहार कराया, चाय पिलाई। लगता है इससे सबसे अधिक सुकून इसी बहुरानी को मिला है। वह आनंदित सभी को धन्यवाद दे रही है और मालिक मकान ठेकेदार को इन श्रमिकों के मूलतः अमूल्य श्रम का पूर्व निर्धारित भुगतान कर रहा है।

इसके साथ आज का यह दृश्य पूर्ण हुआ। प्राकृतिक बाहुबलियों का यह दल संभवतः कल फिर किसी के सिर को छत दे। परसों भी हो सकता है इसकी पुनरावृत्ति हो और आगे भी होती रहे। क्या पता, इनके अपने घरौंदों के छज्जे ठीक होंगे या नहीं! क्या पता, इनके घर की टूटी दीवाल ठीक हुई है या नहीं! क्या पता, उखड़े आँगन में गिरकर बच्चों के घुटने अभी भी छिलते हों! क्या पता, घर के समीप की गंदगी से बजबजाती नाली रोज़ की तरह अभी भी नगरपालिका की कृपा दृष्टि की आस में हो!

क्या पता, ऐसा हो या वैसा हो...!
क्या पता-क्या पता-क्या पता...!?

इन्हीं विचारों की गठरी बाँधे मैने निर्मित स्लैब को देखा कि घरौंदा आबाद होगा इसके नीचे। सुख-दुख के क्षण साझा होंगे इसके नीचे। बच्चे जवान होंगे इसके नीचे। हंसी, आनंद और शिक्षा के पल बीतेंगे इसके नीचे। फिर जाते हुए मज़दूरों को देखा कि ये जा रहे हैं मिट्टी के मतवाले। कितना कौशल है इनके हाथों में। कैसा भीष्म साहस है इनके सीने में। फ़ौलाद के जिस स्नायुतंत्र की बात योद्धा सन्यासी स्वामी विवेकानंद करते थे, ये उसके उत्तम उदाहरण हैं।

मैं जा बैठा थोड़ी देर उसी पार्क में जहाँ आज इन कर्मवीरों के कारण अच्छी चहल-पहल रही। स्लैब बनाने वाले लौट गए और मैं देख रहा हूँ उनके चलने से उड़ती धूल।
-अखिलेश श्रीवास्तव 'दादूभाई'
(कथेतर लेखक)


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