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चंदा वसूली से फिरौती तक (व्यंग्य) -डॉ हरीशकुमार सिंह


जब हम छोटे थे तो माँ बच्चों को घर से बाहर अकेले जाने को मना करती थी कि कोई अगुआ कर लेगा या उठा ले जाएगा। गांवों में भी भरी दोपहर में अपहरण की ऐसी घटनाएं होती रहतीं थीं और बाद में घर वालों को संदेश मिलता था कि इतने रुपये फलां जगह लेकर आ जाओ और अपने रिश्तेदार को छुड़ा ले जाओ। इसे पकड या फिरौती कहा जाता था और तब बदमाशों या डकैतों का यह प्रमुख धँधा भी था। समय बदला और बीहड़ कम होते गए तो बदमाश और डकैत कम होते गए मगर ये महानुभाव और कोई काम न मिलने के कारण देश की समावेशी राजनीति और सभी राजनीतिक दलों में सेट होते चले गए।

आजादी के कुछ समय बाद तक राजनीतिक दलों ने उद्योगपतियों को उनके उद्योंगों के लिए सुविधाएं और राहत देने के लिए उनसे बदले में नगद या चेक से चंदा लेना शुरू कर दिया जिससे राजनीतिक दल , चुनावों में रुपया खर्च कर सकें। चंदा तब भी गुप्त ही रखा जाता था और सिर्फ जनता को पता नहीं चलता था कि किसने किसको कितना चंदा दिया बाकी देने वाले को और लेने वाले को पता रहता था। पुराने लोग बताते हैं कि तब जब देश का बजट बनता था तो देश के उद्योगपति राजधानी में डेरा डाल लेते थे और लॉबिंग कर अपने हिसाब से औद्योगिक नीतियां बनवाते थे और राजनीतिक दलों को बदले में चंदा देते थे। जो राजनीतिक दल सत्ता में होता था उसे ज्यादा चंदा मिलता आया है यह परम्परा है । यह चंदा वसूली थी। यह आपसी सामजंस्य और प्रेम से होती थी तो कभी - कभार डरा धमकाकर चंदे की वसूली भी की जाती रही है | फिर नई सरकार आई और राजनीतिक दलों के मुखिया चंदा न खा पाएं क्योंकि नगद मिलने पर हो सकता है कि मुखिया आधा रुपया डकार लेता होगा और पार्टी फंड में आधा ही जमा करता होगा । जब नोटबंदी हुई थी तो एक दल की मुखिया ने घर में रखे 100 करोड़ पार्टी के बैंक खाते में जमा किये थे।

तो बात फिरौती की हो रही थी जिसमें आप पिस्तौल या बन्दूक की नोंक पर किसी का अपहरण कर , उसे छोड़ने के नाम पर परिवारजनों से या उससे मुंह मांगी रकम मांग सकते हैं । अब नए राजनीतिक दल आए , उसमें नए लोग आए तो पार्टी फंड को बढ़ाने के लिए नए विकल्प तलाशे जाने लगे। हर राजनीतिक दल में पहले सचमुच के अपहरण और फिरौती वसूलने वाले अनुभवी सज्जन लोग भी थे जिन्हें जेल का अनुभव भी था | ये जानते हैं कि जब जनता बिना रेवड़ियाँ लिए वोट नहीं देती तो पार्टी फण्ड के लिए भी बिना उंगली टेढ़ी किये घी नहीं निकलेगा इसलिए अपनी सबसे बड़ी पार्टी को चंदा - वसूली की जगह फिरौती के जरिये वसूलने के नए सुझाव दिए। इसके लिए सबसे पहले सरकार के छापा मार विभागों को तलब किया गया । इन विभागों में राज्यों से और अधिकारियों ,कर्मचारियों को लाया गया। अब इन छापा मार विभागों ने बड़े उद्योगपतियों ही नहीं , लॉटरी , सट्टे , जुआ चलाने वालों के यहां भी छापे डालने आरम्भ कर दिये। बड़े - बड़े अस्पतालों , रियल एस्टेट वालों के यहाँ देश भर में छापे डाले जाने लगे। सब हैरान परेशान थे कि सरकार एक और तो इंस्पेक्टर राज खत्म करके उद्योगपतियों को सुविधाएं देने की बात करती है दूसरी और खुद ही इंस्पेक्टर बनकर छापे डलवाती है। छापे पड़ने के बाद जिनके यहां छापे पड़े ,एक दूसरे से , पूछते हैं कि बचने का कोई रास्ता है क्या। तब कोई कहता है कि एक बड़ी बैंक से बड़ी राशि के चुनावी बांड ले लो और छापामार पार्टी को वो बांड गिफ्ट कर दो आगे कोई कार्रवाई नहीं होगी। हो सकता है आपको कोई बड़ी सरकारी परियोजना भी मिल जाए। जिन पर छापे पड़े सबने राहत की सांस ली और सब चुनावी बांड लेने निकल पड़े । महाभारत में कौरव पांडवों के बीच झगड़े की जड़ जुआ खेलना बनी थी और तब जुआ ही सबसे लोकप्रिय खेल था जिसने महाभारत की नींव रखी | वर्तमान में भी सट्टा - जुआ वाले ही प्रमुख उद्योग हैं जो चंदा देने में भी आगे हैं। यह नए समय की नई फिरौती है जिसका हिसाब भी जनता को मिलने जा रहा था कि किस उद्योगपति ने किस पार्टी को कितनी फिरौती दी और क्यों दी यह जनता जाने |

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