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सद्भावना एवं समरूपता का पर्व है होली -पदमचंद गांधी



होली हमारी भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है जो बसंत ऋतु में तब मनाया जाता है जब प्रकृति पूर्ण यौवन पर होती है तथा अपना संपूर्ण श्रृंगार कर लेती है ।चारों ओर विविध रंगों के पुष्प सुशोभित होते हैं । पेड़ों पर नई कोप्पले आती है । प्रकृति में चाहूं और हरियाली की नवीनता, फूलों की सुगंधितl रहती है । होली के समय मौसम सुहाना हो जाता है । किसान अपनी फसलों को काटते हैं ,नई फसल की अगवानी में खुशियां मनाते हैं तथा अपने समस्त दुखों को भूलकर प्रकृति की अनुपम छटा के साथ एवं रंगों के साथ उल्लासित हो जाते हैं ।

होली के इस उत्सव पर जाति संप्रदाय का कोई भेद नहीं रह जाता, सभी मिलजुल कर होली खेलते हैं ।होली के दिन उच- नीच, अमीर- गरीब का कोई भेद नहीं किया जाता, सभी को समानता के रंगों में रंगने के लिए यह त्यौहार मनाया जाता है । सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होली का उत्सव जैसे पवित्र त्यौहार का वर्णन किया है । भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि यह पर्व केवल हिंदू ही नहीं अपितु मुसलमान लोग भी मानते हैं इसका सबसे बड़ा प्रमाण मुगल काल की भी तस्वीरें हैं जिनमें सभी धर्म के लोग एक साथ मिलकर होली खेलते दर्शाए गए हैं । इन तस्वीरों में अकबर को जोधा बाई के साथ तथा शाहजहां को नूरजहां के साथ होली खेलते हुए दिखाया गया है ।इतिहास में वर्णन आता है कि शाहजहां के जमाने में होली को ईद -ए -गुलाबी या आब -ए- पासी अर्थात रंगों की बौछार कहा जाता था । अंतिम मुगल बादशाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि मुस्लिम भाई एक दूसरे को गुलाल अबीर लगाकर इस होली उत्सव को सामूहिक रूप से मानते थे ।

होली में रंगों को खेलने की परंपरा के पीछे उद्देश्य यह है कि व्यक्ति का जीवन विविध रंगों की सुंदरता से खिल उठे, जीवन में निरस्ता , निराशा, कुंठा, क्रोध आदि मनोभाव का शमन हो और उसके जीवन में उत्साह ,उमंग, साहस ,शौर्य, पराक्रम ,प्रसन्नता एवं शांति का रंग चढ़े। होली का त्योहार पाप पर धर्म की विजई है ।असत्य पर सत्य की विजय है । प्रहलाद और होली का इसी के प्रतीक है l

जैन धर्म में होली का आध्यात्मिक महत्व है । अहिंसा प्रधान धर्म के पालन हेतु तथा संयम आराधना हेतु साधु साध्वी भी स्थिर्वास में रहते हैं, इसलिए इसे होली चातुर्मास के नाम से भी जानते हैं । शास्त्रों के अनुसार होली जालना एवं होली खेलने को हिंसा का कारण बताया है ।होली जलाने में अग्नि के जीव, वायु के जीव, पानी एवं रंगों के साथ होली खेलने से अप्पकाए, वनस्पतिकाय के जीवो की हिंसा होती है तथा मौज, मस्ती, मनोरंजन हेतु किए गए नाच- गाने ,नशे का सेवन आदि से रगात्मक विकार पैदा होते हैं, जिससे कर्मों का बंद होता है। जैन धर्म का मूल सिद्धांत पुराने कर्मों को घटना तथा नए कर्मों का बंधन नहीं करना एवं अहिंसा का पालन करना बताया है। अपनी आत्मा को शुद्ध एवं पवित्र बनानी है तो कर्मों की होली जलाओ, कर्मों की निर्जरा करो । ज्ञान की गुलाल लगाओ , विवेक की पिचकारी से संयम का रंग बरसाओ , पानी से नहीं वरन जिनवाणी से सबको नहलाओ यही सच्ची होली है । किसी के कीचड़ मत लगाओ लेकिन उसे पाप के कीचड़ से जरूर बचाओ । रंग में रंगना है तो धर्म के रंग में रमन करो और अपना भवसागर पार करो ।

अतः होली प्रेम एवं सद्भावना का पर्व है । इसे सद्भावना के रूप में ही मनाएं और कहा भी गया है :-

सतरंगी होली काहे, करो ने मुझे करो ना मुझे बदरंग ।

ज बदरंग मैं हो गई हो गई तो, डालू रंग में भंग ।।

इंद्रधनुष रंग होली के, होली प्रेम को रंग ।

प्रेम रंग में ऐसे रमन ,जो मेहंदी को रंग ।।

राग द्वेष देश की होली जले , जले मन के कसाई ।

जलते जलते आत्मा पके कुंदन दे बनाई ।।

अत स्पष्ट है होली सद्भावना का त्यौहार है लेकिन फिर भी इसे मनोवैज्ञानिक रूप से देखा जाए तो होली पर मन की दमित भावनाओं को बाहर निकलने का एक सुनहरा अवसर है । होली का त्योहार अपनी प्रसन्नता को विविध रंगों के माध्यम से बिखेरने , सबसे मेलजोल बढ़ाने , दुर्भावनाओं को मिटाने का पर्व है। होली की सद्भावना हमारे कोमल भावों को जाग्रत करती है ,जो हमारे सारे अहंकार को गला कर ,त्याग कर स्वजनों को रंग में सरोबार कर देती हैl इंद्रधनुषी विविध रंगों की बौछार न केवल हमारे तन को गिला करती है बल्कि हृदय को आत्मा से जोड़ती हैl होली पर एक दूसरे पर रंग लगाने का उद्देश्य अपनी पहचान के स्थान पर एकरूपता का होना है। मनुष्य भले ही समाज में ,जाति-पाति में उच्च- नीच, कुल -धर्म, समानता -असमानता, रंग-भेद आदि से मनुष्य के बीच दीवारे खड़ी कर लेते हैं, लेकिन वास्तव में हम सभी इन सब से ऊपर मनुष्य ही है, परमात्मा की दृष्टि में हम हम में कोई भेदभाव नहीं है, हम सभी में इस परमात्मा का अंश रूप जीवात्मा मौजूद है । भिन्नता है तो सिर्फ हमारे कर्मों में ,मनोवृतियों में ,दृष्टिकोण एवं विचारों में है यदि इन सब में भी परिष्कृति आ जाए तो हम मनुष्य किसी देव से कम नहीं रह जाते ले । किन देखने में आता है आजकल हमने सारी मर्यादाएं तोड़ दी है और हम बदले की भावना से होली खेलते हैं जिससे दुर्भावना हमारे बीच में आती है जबकि यह पर्व सद्भावना का है प्रेम का है उल्लास का है इसमें दुर्भावना कहीं नहीं आना चाहिए । अनुशासित होकर, मर्यादित होकर एक दूसरे के साथ प्रेम पूर्वक होली का पर्व रंगों के साथ मनाना चाहिए इसी में पर्व मनाने की सार्थकता सिद्ध होती है ।

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