दुनिया की नज़र में
जो हमारे अपने हैं
उन अपनों से हमने
कभी कुछ लिया भी नहीं,
उन अपनों से हमें
कुछ मिला भी नहीं
फिर भी हर पल रहे
समर्पित उनके लिए
लेकिन हमारा समर्पण कभी
किसी को दिखा ही नहीं।
कहने को जो हमारे है उनको
जो भी था हमारा अपना
सब कुछ अर्पण करते रहे
फिर भी रोज
किसी न किसी के
द्वेष और ईर्ष्या के
शिकार बनते रहे
हर बार शब्दों की चोट पड़ी है
हर बार व्यंग्य के बाण चले है
कईं गहरे घाव सहे है।
पर,हर बार उन चोटों के दर्द से
खुद को निकाल लिया हमने
चेहरे पर मुस्कुराहट का
एक नक़ाब सजा लिया हमने
ता-उम्र किसी ना किसी
भ्रम से मन को बदलते रहे हम
हर रात आँसुओं से तकिया
भिगोती रहे हम।
और जिंदगी के ग़म
भूलाते रहे हम।
-मनीषा 'मन', रीवा
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