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एक अदद फ्रीज (व्यंग्य) -डॉ राजेन्द्र परदेसी


मेरा भोला मुझे बहुत प्यारा है। घर में मेरी और उसकी स्थिति एक जैसी है। परिवार के अन्य सदस्यों की दृष्टि में वह अनुपयोगी सदस्य के रूप में पहचाना जाता है। मैं मात्र धनोपार्जन का माध्यम हूँ। उससे कोई राय लेने का तो सवाल ही नहीं। मेरी भी राय लेने की जरूरत नहीं समझी जाती है।

लोग भोला से अपेक्षा करते है कि वह उनकी सुरक्षा सजग ढंग से करता रहे, भले ही स्वयं असुरक्षित रहे। मेरी भी स्थिति इससे भिन्न नहीं है। उसका कार्य सुरक्षा से जुड़ा है तो मेरा अर्थ की व्यवस्था से।

परिवार के हर सदस्य की अपनी-अपनी आवश्यकताएँ है, जिन पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसके विपरीत यदि मैं कोई माँग रखता हूँ तो सर्वसम्मत से अस्वीकार कर दी जाती है। कहा जाता है कि आपको इसकी क्या आवश्यकता है। अपने प्रस्तावों का हश्र ज्ञात होने के कारण कोई प्रस्ताव रखने का साहस नहीं संजो पाता हूँ। भोला भी कुछ ऐसा ही अनुभव करता है। यह भी अपनी उपेक्षा से इतना उदासीन हो गया है कि उसे कब क्या मिलता है, इस पर विशेष ध्यान नहीं देता। शायद उसने हालात से समझौता कर लिया है। मेरे प्रति आदर का भाव अवश्य रखता है। तभी तो जब मैं कार्यालय से वापस आता तो वह तुरन्त मेरे पास प्यार जताने आ जाता। लगता, जैसे वह मुझे आश्वस्त कर रहा है कि तुम्हारे जैसा मैं भी इस घर का अंग हूँ इसलिए धैर्य न खोया करो। पर उस दिन उसकी उपेक्षा मुझसे सही नहीं गयी। जब मैं कार्यालय से लौटकर आया तो देखा कि भोला मुझे देखकर भी मुंह घुमाए दूसरी ओर चला जा रहा है। परिवार के अन्य सदस्यों की उपेक्षा का आदी हूँ, लेकिन भोला की उपेक्षा ने मुझे अन्दर-ही-अन्दर साल दिया।

घर में प्रवेश किया तो देखा, सामने के कमरे में एक अदद फ्रीज रखा है। उसके खरीदने में भी मेरी सहमति असहमति की परवाह नहीं की गयी। इसके पहले कि मैं उसके आगमन की कहानी पूछता और उसकी उपयोगिता पर कोई प्रश्न उठाता, श्रीमतीजी प्रवेश करते हुए बोलीं- ‘पानी पीजियेगा?’

मैंने दबी आवाज में ‘हाँ’ कह दिया- तत्काल श्रीमतीजी ने फ्रीज खोलकर ठंडे जल की बोतले लाकर मेरे सामने रख दी। गाँव का आदमी ठहरा, शहरी पृष्ठभूमि बस यही है कि मेरी श्रीमतीजी शहर में ही बढ़ी और कढ़ी है। इसलिए हल की मूंठ छोड़कर कलम, चलाकर जीवन जी रहा हूँ। पर आज तक शहर को पूरी तरह अपना नहीं सका। किसी तरह एक गिलास पानी पी पाया कि उन्होंने मेरे गिलास में और जल डाल दिया, परिणाम यह हुआ कि चार दिन तक जुकाम से पीड़ित रहा। एक दिन तो हद हो गयी जब उन्होंने फ्रीज में रखा ठंडा खाना मेरे सामने रख दिया। मुझसे रहा न गया। प्रश्न किया कि आप तो मुझे सदैव ताजा भोजन देती रही है, लेकिन आज यह क्या? उन्होंने जो उत्तर दिया, उससे मुझे अपने अस्तित्व का ज्ञान हो गया। उन्होंने बताया कि अब तक जो भोजन बच जाता था, खराब होने के डर से भोला को दे दिया जाता था, जब से फ्रीज आया है, भोजन बेकार नहीं जाता। सुबह का शाम को और शाम का सुबह को उपयोग में आ जाता है। यानि कि भोला को मिलने वाला भोजन मेरे हिस्से में आ गया है। शायद भोला को मुझसे पहले ही फ्रीज के आने का परिणाम मालूम हो गया था।

भोला अगर मनुष्य योनि में जन्म लेता तो मेरी पीड़ा को समझ पाता। मैं उसकी बिरादरी का न सही, इस बात का अनुमान तो लगा ही सकता हूँ कि वह मुझे क्यों हेय दृष्टि से देखने लगा है। अगर फ्रीज न होता तो उसे अधिक भोजन उपलब्ध होता। अब तो उसे दो रोटी सुबह-शाम मिल जाए, यही बहुत है। निश्चय ही अब मैं भोला से अपनी उपेक्षा सह नहीं पा रहा हूँ। भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि घर में आये फ्रीज में कोई खराबी आ जाय और मेरे पालतू कुत्ते भोला को, जिसे लोग वही भोजन प्यार से दिया करते थे, फिर मिलने लगे। अगर आप भी मेरे लिए दुआ कर सकें तो यह आपकी महती कृपा होगी, अन्यथा हम दोनों तो फ्रीज को कोस ही रहे हैं।

-डॉ राजेन्द्र परदेसी, लखनऊ

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