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महावीर के सिद्धान्तों की प्रासंगिकता -पदमचंद गांधी


प्रभु महावीर का जन्म 24वें तीर्थंकर के रूप में आज से लगभग 2621 वर्ष पूर्व (599 बी.सी.) माता त्रिशला की कुक्षी से तथा पिता राजा सिद्धार्थ के घर आंगन में वैशाली गणराज के कुण्डग्राम में हुआ। तीस वर्ष की आयु में स्वयं द्वारा पंच मुष्टि लोच कर संयम अंगीकार कर साढ़े बारह वर्ष की घोर तपस्या करते हुए तथा परिसहो एवं उपसर्गों को सहते हुए समता भाव में रहकर 557 बी.सी. साल वृक्ष के नीचे ऋजुवाला नदी के किनारे गोधुली वेला में गौदुही आसन में केवल ज्ञान को प्राप्त किया तथा 72 वर्ष की आयु (527 बी.सी.) में पावापुरी में निर्वाण प्राप्त किया। इन्होंने अपने विचारों में अनेकान्त वाणी में स्यादवाद जीवन में अपरिग्रह और आचरण में अहिंसा को अपनाया तथा प्रत्येक व्यक्ति को मैत्री का संदेश देते हुए जीओ और जीने दो को चरितार्थ किया। महावीर ईश्वर के अवतार नहीं थे वे जन्म से भगवान भी नहीं थे। वे युवावस्था में संयम के राजपथ पर चले तथा बन्धी हुयी परम्परा को नहीं मान कर सत्य को स्वीकार किया। तप एवं साधना की परिणिति से भेद विज्ञान को समझते हुए अनन्त ज्ञान के आलोक को प्रकट किया। उन्होंने कहा “अप्पणा सच्च नेसज्जा“ अर्थात् स्वयं सत्य खोजे। उन्होंने रास्ते रोशन नहीं किए वरन् भीतर रोशनी पैदा की। उनके संवादों में शाश्वत की आहट थी, दृष्टि में कशिश थ। आहवान्न में आमंत्रण था तथा बांधे रखने वाली अभिव्यक्ति थी। उनका मार्ग दर्शन इतना प्रभावी था कि कोई भी भटक नहीं सकता। इन सभी कारणों से महावीर बोलते समय स्यादवादी, श्रद्धाकाल में अनेकांतदर्शी आचरण की दृष्टि से चरित्र निष्ट, प्रवृतिकाल में ज्ञानी, निवृतिकाल में ध्यानी, बाह्य के प्रति कर्म योगी और अन्तर के प्रति तपस्वी थे।

प्रभु महावीर ने परम्परागत मान्यताअेां से हटकर एक नया जीवन दर्शन मानव मात्र को दिया। वे पुरूषार्थ के प्रबल समर्थक थे, कर्म निर्यात, ईश्वर आदि के विषय प्रचलित प्राचीन मानव की विचार धारणाओं को झक झोरते हुए उन्होंने मानव को आव्हान किया “पुरिस्सा परम्कमेज्जारि“ हे पुरूष! तू पराक्रम कर। उन्होंने मानव में रही हुयी सुषुप्त शक्ति को जागृत करने की प्रेरणा देते हुए कहा “हे मानव तू ही तेरा कर्ता एवं भोक्ता है। तू ही सर्व शक्तिमान है, तू ही स्वयं अपने शक्ति के स्रोतों की पहचान है, तू ही उनका उद्घाटन कर्ता है, तेरे में अनन्त क्षमता है, अतः अपने सिंहत्व को जगा और पुरूषार्थ कर। “उन्हेांने ईश्वर कृत्तववाद के स्थान पर आत्म कृत्तववाद को स्थापित किया उन्हेांने कहा “तुम मेव तुमं मित्तं कि बहिया मित्तं मिच्छसि“ “एकला चलो रे“ का घोष मंजिल तक कूच करने की प्रेरणा दी।

प्रभुमहावीर के विचार जो सिद्धान्त बन गये आज भी प्रासंगिक है यदि हम इन सिद्धान्तों का आचरण करे तो हमारी आधी समस्याएं स्वतः खत्म हो जाती है। आज समूचा विश्व प्रतिस्पर्धा की होड़ में दौड रहा है, विकास के नाम पर पृथ्वी से आसमां तक अपने फैलाएं जाल में स्वयं ही उलझता जा रहा है। इसलिए आज भारत ही नहीं समूचा विश्व प्रेम व सद्भाव के अभाव में शुष्क होता जा रहा है। छल कपट प्रपंच अन्याय, अत्याचार, आतंक शक्ति व सैन्यबल दूसरों को आत्तायी की तरह सताते हुए संकोच नहीं करते है। आज मानव जाती अपने कुकृत्यों एवं वाणी से प्राकृतिक मर्यादाओं को लांघते हुए धर्म के चक्रव्यूह में फंसते हुए सांसारिक वातावरण को भयानक एवं प्रदूषित कर रही है।

महावीर ने कहा अगर राग-द्वेष, घृणा न होते तो दुःख संताप न होते, वाद-विवाद न होते, धोखे, असत्य, अनिष्ट, कलह आदि भी नहीं होते। अनर्थ भाव काम न होते और ये सब न होते तो गुण धर्म का लोप भी नहीं होता। शरीर, मन, आत्मा स्वास्थ्य होते। मानव की शक्ति व साधन व्यर्थ नहीं होती। यदि मनुष्य में विनय के भाव होते तो हिंसा न हेाती। भगवान महावीर का संदेश है “अहिंसा और सबस से प्रेम“ इससे ही विश्व शान्ति आयेगी और पृथ्वी पर प्रेम विकसित होगा। महावीर के प्रमुा सिद्धान्त निम्न प्रकार हैंः-

अहिंसा परमो धर्मः - आज अगर हम पूरे विश्व की और दृष्टिपात करे तो सर्वत्र हिंसा का ताण्डव दिखायी दे रहा है। आतंकवाद, हिंसा, घृणा, नफरत की आग में पूरा विश्व भभक रहा है। दो विश्व युद्ध, हिरोशिमा और नागासाकी का विध्वंस युक्रेन व रूस का वर्तमान संघर्ष, वियतनाम से हिंसा, श्रीलंका की जातीय हिंसा, कश्मीर विवाद, चैचन्या व तजाकिस्तान में घरेलु संघर्ष, खाडी युद्ध, फिलिस्तिन व इजराइल के बीच न समाप्त होने वाली लड़ाई व तालिबान विद्रोह आदि ने सम्पूर्ण मानव जाति के अस्त्तिव को संकट में डाल दिया है। ऐसी स्थिति में “अहिंसा परमो धर्मः“ का सिद्धान्त जिसमें मन, वाणी और कर्म से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देना, ऐसी जरूरत आज प्रत्येक मानव के लिए है चाहे वह किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय या देश से सम्बन्धित है। महावीर ने कहा “सव्वेसिं जीवियंजीव“ सबको अपना जीवन प्रिय है, कोई भी मरना नहीं चाहता अतः हिंसा महापप है। सुख के द्वारा हिंसा नहीं अहिंसा है। प्रभु महावीर ने कहा जिसका तू हनन करना चाहता है, वह तू ही हैं। जिसे तूं शासित किए जाने योग्य मानता है वह तू ही है। जिसको तू सताने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसको तू गुलाम बनाने योग्य मानता है वह तू ही है जिसको तू अशान्त मानने योग्यता मानता है, वह तू ही है। दूसरों की सुख दुःख की अनुभूति को आत्मतुला से तोल व आत्म सम्मान को समझा। जो दूसरों को आत्मवत समझ लेता है, वह दूसरों को धोखा नहीं दे सकता। उत्पीड़न व हनन नहीं कर सकता। इस संदेश से विश्व शान्ती की स्थापना होती है तथा विश्व मैत्री, सौहार्द और सहानुभूति के उत्तात विचार प्रकट होते हैं। महावीर ने तो स्थूल हिंस को ही नहीं वरन् सूक्ष्म हिंसा जो जो भावों से होती है उसे भी महत्व दिया है। हिंसा तो वहां भी है जहां स्वतंत्रता का अपहरण होता है। उस पर हुकुमत होती है शोषण होता है, बल प्रयोग होता है किसी के मनको वचन से काया से तथा मन से संताप या अघात पहुंचाया जाता है । अतः हमें द्रव्यहिंसा के साथ साथ भाव हिंसा को भी लक्षित करना चाहिए।

महाभारत में भी कहा गया है अहिंसा परम धर्म है, परम दया है, परम यज्ञ है, परम सुख है परम तीर्थ है। महावीर ने पंच महाव्रतों में प्रथम स्थान अहिंसा को दिया है। महावीर ने किसी के प्रति कटुवचन, कहना, अधिक भार लादना, किसी को अधिकार चुत्य करना वस्तु में मिलावट करना आदि को भी हिंसा बताया है। हिंसा आत्म बल को गिराती है और अहिंसा जीवन की उदात्त शिखरों तक पहुंचाती है। इसलिए यदि हिंसा से बचना है तो आरम्भ सारम्भ से बचना, यतना एवं विवेक का ध्यान रखना, त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा करना, भ्रूण हत्या तथा गर्भपात नहीं करवाना, असंवेदनशील नहीं बनना, दूसरों के जीने में सहाकय बनना, शाकाहार का उपयाग करना, छेदन भेदन नहीं करना। हिंसक व्यापार नहीं करना इत्यादि नहीं करने से हमें हिंसा एवं पाप से बच सकते हैं चाहे वो सूक्ष्म हिंसा हो या भाव हिंसा या फिर स्थूल हिंसा।

क्षमा वीरस्य भूषणम् - एक छोटे से शब्द सॉरी कहने से अनेक समस्याओं का निवारण हो जाता है क्योंकि क्षमा जीवन मैत्री का प्रथम सोपान है तथा आत्म शुद्धि का सार है। मन में व्याप्त कषायों को रोकने का तथा कषाय मुक्ति की परम औषधी क्षमा ही है। क्रोध को क्षमा के द्वारा शान्त किया जा सकता है। क्षमा का अर्थ है सहनशील होना और क्रोध पैदा न होने देना तथा उत्पन्न क्रोध को विवेक और नम्रता से निष्फल करना है। अपकार कर्ता के प्रति दुर्भाव न रखते हुए जो सहनशीलता रखी जाती है वही सच्ची क्षमा है। इसलिए क्षमा को जीवन का अमृत भी कहते है। क्षमा करना एवं क्षमा मांगना आसान नहीं है। इसके लिए मन की निर्मलता, शुद्धता, सरलता, सहजता तथा अंहकार रहित भावना का होना आवश्यक है। इसलिए यह कायरों का नहीं सूरवीरों का साहसिक कार्य होने से इसे वीरों का आभूषण कहा गया है। क्योंकि जो शक्तिशाली होकर सहनशीलता रखता है वास्तव में वही सूरवीर है। क्षमा अंतशत्रु को जीतने का खड़ग तथा पवित्र आचार रक्षा करने का बख्तर है। क्षमाशील बनने के लिए साहस, विश्वास, सहनशीलता के साथ ही ध्यान, स्वाध्याय, दर्शन, विशुद्धि आदि 16 भावनाओं तथा अनित्य शरण आदि 12 भावनाओं तथा मैत्री प्रमोद करूणा और मध्यस्थ इन सभी प्रकार की भावनआों एवं प्रर्थनाओं का नियमित अभ्यास की आवश्यकता होती है। क्षमा के गुण से तप एवं संयम में निखार आता है। महावीर ने क्षमा के लिए एक सुन्दर एवं गम्भीर सूत्र दिया हैः-
खामेमि सव्वे जीवा, स्ववे जीवा खमन्तु में
मित्ती में सव्वभूएसु वेरं मज्झं न केणई।।

अर्थात् मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं, सभी जीव मुझे क्षमा करें। सभी प्राणी मेरे मित्र है, मेरा किसी से वैर नहीं। इस गाथा में मुख्य चार बाते स्पष्ट होती है‘- 1) क्षमा का दान स्वयं अन्तहृदय से देवे, इसके साथ कोई शर्त नहीं हो। 2) दूसरे जीव मुझे क्षमा करे। यह हमारी याचना होती है, अपेक्षा होती है उनके द्वारा क्षमा करना शर्त नहीं हो यह उनके भावों पर निर्भर है। यदि शर्त बीच में हो तो यह केवल मात्र औपचारिक रह जाती है। 3) जगत के सभी प्राणी मेरे मित्र है, जो विश्व बन्धुत्व को एवं विश्व मैत्री को स्पष्ट करती है। ऐसी भावना जीवन में बिना किसी दबाव एवं स्वार्थ के धारण करने से ही है। 4) जब क्षमा कर दिया सभी को मित्र मान लिया तो चौथी बात स्वतः फलीभूत हो जायेगी क्योंकि कोई शत्रु रहेगा ही नहीं। इसके लिए हमें क्रोध के निमित्त का चिन्तन, क्रोध के दोषों पर विचार, बाल स्वभाव का चिन्तन, पूर्व कृत कर्मों का चिन्तन, क्षमा के गुणों का चिन्तर तथा क्षमा द्वारा मानवीय गुणों का चिन्तन करना जरूरी है। इसलिए ‘क्षमा‘ का छोटासा शब्द वीरो का आभुषण बन जाता है।

अनेकान्त दृष्टि :- आज हमारा दृष्टिकोण एकान्तवादी हो गया है। इससे अनेक समस्याएं हमें चुनोतियों दे रही है क्योंकि किसी को एक एंगल से देखना पूर्ण सत्य नहीं होता है। इसे मल्टी एंगल से देख्ना तथा उसके बाद निर्णय करना पूर्ण सत्य हैं। ‘मैं‘ ही सत्य हूँ यह एकान्तवादी दृष्टिकोण होता है जब कि मैं भी सत्य हूं यह अनेकान्तवादी दृष्टिकोण होने से विषमताओं एवं समस्याओं समाधान स्वतः हो जाता है, इसमें अहम के स्थान पर या मैं के स्थान पर मैं भी सही हूं की भावना आ जाने से विवादों से बच सकते हैं। आज व्यक्ति अपनी बात मनवाने के लिए तक्र वितक्र करता है कई प्रकारके दाव पेच खेलता है लेकिन जब उसकी बात अस्वीकृत होती है तो उत्पन्न होते है। विवाद, संघर्ष, टकराव, मनमुटाव। ऐसी स्थिति चाहे घर परिवार हो, समाज हो या देश-विदेश सभी जगह देखने को मिलती है। आज एकान्त दृष्टिकोण वाद दिया जाता है या थोप दिया जाता है क्योंकि वह सम समझता है ‘मम सत्यम‘ जो मेरा है सो खरा है। इन सभी विवादों से बचने के लिए प्रभु महावीर ने सुन्दर सिद्धान्त अनेकान्तवाद या स्यादवाद दिया है जो निरपेक्षता को बढ़ाता है क्यों कि जो मै कहता हूं वह भी सत्य है, लेकिन जो दूसरा कहता है वो भी सत्य हो सकता है। यह है सापेक्षता जिसे आइस्टीन ने ‘थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी‘ अर्थात् सापेक्षता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया जो अनेकान्तवाद पर आधारित है। प्रभु महावीर ने कहा वस्तु को अन्नत धर्मों की अपेक्षा से देखों तभी पूर्णता का ज्ञान होगा। अतः एकान्तदृष्टि का अन्त करके ही हम सम्पूर्ण सत्य का दर्शन कर सकते है। अनेकान्तवाद के अलोक में हम वर्तमान के राजनीतिकवादों, सामाजिक पद्धतियों की व्याख्या कर इनके विरोधाभाषों को समन्वय में बदल सकते है तथा संघर्षों को शान्ती व मैत्री के रूप में परिवर्तित कर सकते हैं।

अपरिग्रह:-अपरिग्रह का सामान्य अर्थ है अपने स्वामित्व का इच्छा पूर्वक त्याग, प्राप्त का स्वेच्छा से विसर्जन तथा अप्राप्त की मूर्छा का परित्याग। लेकिन प्रभु महावीर ने कहा केवल मात्र संग्रहीत का त्याग यश प्राप्ति, प्रेरणा के लिए, नाम के लिए, भय के कारण, दबाव के या स्वार्थवस त्याग करने को अपरिग्रह नहीं कह सकते। इसके लिए आसक्ति रहित, मूर्च्छा रहित होना होता है, क्योंकि परिग्रह का मूल कारण मूर्च्छा है, ममत्व है, आसक्ति है तथा प्राप्त पर ममत्व एवं अप्राप्ति की इच्छा करना ही परिग्रह है। महावीर ने कहा भय डर का प्रमुख कारण परिग्रह है। आचारांग सूत्र में स्पष्ट किया “एयमेव एगेसिं महब्यं भवई“ अर्थात परिग्रह संसारवर्ती जीवों के लिए महाभय रूप होता है। संसारी अपना अधिकंश समान संग्रह या संचय में बिताता है तथा उसके रक्षण में बिताता है क्योंकि उसे सग्रहीत को खोने का भय सदैव रहता है तथा भविष्य के प्रति भय ही संचय प्रवृति का पोषक है। जीवन को निर्भय बनाना है तो अपरिग्रही बनकर ही बन सकते हैं, क्योंकि निर्भय जीवन का आधार अपरिग्रह ही है।

परिग्रह सभी पापों का मूल होता है। महावीर ने पांच महाव्रत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचार्य तथा अपरिग्रह बताये हैं इनमें यदि अपरिग्रह को अपना लिया जावे तो शेष चार दोषों से होने वाली हिंसा झूठ, चोरी, अब्रह्म सेवन से स्वतः बच सकते हैं क्योंकि परिग्रह की भावना से वह झूठ बोलता है, चोरी करता है, हिंसा करता है तथा अति परिग्रह के कारण भोग वृत्ति की तरफ बढ़ता है। अतः अपरिग्रह द्वारा इन सबसे बचा जा सकता है। सन्तुलित जीवन के लिए हम सम्पूर्ण त्याग नहीं कर सकते लेकिन महावीर के अनुसार “परिमाण की पाल बांध“ कर हम मर्यादित हो सकते है तथा अनेक “पापिकारी क्रियाओं से बच सकते हैं। तृष्णा अनन्त होती है इसे सीमित कर सकते हैं जिसके लिए अनासक्त भाव जरूरी है। महावीर ने तो यहां तक कहा है- प्रत्येक वस्तु आवश्यकता से अधिक रखना, जहर समान है, परिग्रह का कारण है। महात्मा गांधी का ट्रष्टिशिप सिद्धान्त इसी पर आधारित है। परिग्रह जीवन यापन का साधन है, साध्य नहीं है। व्यक्ति की महत्ता, धन से नहीं आत्मीय गुणों से होती है। अतः निर्भय, निर्द्वन्द एवं निश्चिंत जीवन का अधिकारी बनना है तो अपरिग्रही बनना होगा।

पर्यावरण सुरक्षा एवं सह अस्त्तिव का सिद्धान्त - भगवान महावीर को पर्यावरण पुरूष के नाम से भी जानते हैं- प्रभु महावीर ने पर्यावरण सुरक्षा हेतु सूक्ष्म जीवों की हिंसा को अमान्य किया। मिट्टी (खनिज) जल, वायु, अग्नी, वनस्पति काय आदि में भी ‘जीव‘ माना इनका भी अपना स्वतंत्र अस्त्तिव है। ये ऐसे एकेन्द्रीय जीव है जिनकी रक्षा हम यतना और विवेक धर्म द्वारा कर सकते है। इनकी सुरक्षा से ही र्पावरण सुरक्षित रहता है तथा महामारी का प्रकोप भी इनकी हिंसा से बढ़ता है। ये जीव सामुहिक रूप से आक्रमण करते है तो महामारी आती है जिन्हें वाइरस के नाम से जानते हैं छेदन भेदन, दोहन पेडों की कटाई, खनिजों को निकालना ये सभी इकोलोजीकल इम्बेलेंस को जन्म देते हैं। जिनका सीधा प्रभाव मानव जीवन पर पउ़ता है, ऑक्सिजन की कमी, बढ़ती उष्णता (ग्लोबल वार्मिंग) बर्फ का पिघलना इन्हीं के परिणाम हैं।

प्रकृति जीव धारियों का घर है। आज स्वार्थी सुविधावादी तथा कथित प्रगतिशील मानव अपने ही घर को क्षत विक्षत कर रहा है। दुष्परिणाम स्वरूप कार्बन कण धुवां, और दूषित हवा, कल कारखानों का दूषित पानी, धुवां कोलाहल, वृक्षों की कटाई इत्यादि से पर्यावरण को हानी पहुंचा रहे है इनके अस्त्तिव के साथ सभी का अस्त्तिव जुड़ा है। इसलिए उन्होंने इच्छओं, सुविधाओं व पदार्थों के व्यक्तिगत भोग में संयम की बात कही। प्रकृति की सुरक्षा के बिना केाई भी सुरक्षित नहीं रह सकता। महावीर ने पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा, वनस्पति एवं जीवजन्तु को क्षति पहुंचाने से पर्यावरण का नुकसान होता है। प्रकृति का प्रत्येक जीव जीना चाहता है। उसका अपना स्वतंत्र अस्त्तिव है, चाहे वो ऐकेन्द्री जीव हो, या बेन्द्रिय तेन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रीय। सभी अपने अपने अस्त्तिव को बनाये रखना चाहते हैं लेकिन मानवीय लालसा ने शोषण प्रवृति से अतिक्रमण, आक्रमण-प्रवृति से इनका विनाश कर रहा है। सह अस्त्तिव का अर्थ है अपने से भिन्न अस्त्तिव के आक्रमण को स्थान न देना उसे रोकना है जिससे सभी अपने अस्त्तिव को बचाते हुए जीवन यापन कर सके। प्रकृति के साथ खिलावाड करने पर प्रकृति स्वतः अपना बदला लेती है। अतः पर्यावरण एवं सह अस्त्तिव को बचाये रखने के लिए महावीर के सिद्धान्त प्रासंगिक है।

आचारांग घोषणा करता है कि प्राणी के अस्त्तिव को नकराना अपने अस्त्तिव को नकारना है। सभी प्राणियों की सत्ता स्वीकार करके उनके विकास में सहयोगी बने। जब व्यक्ति दूसरों के अस्त्तिव को नकार कर अपने अहं को पोषित करता है तब हिंसा एवं संघर्ष की उपत्पत्ति होती है। प्रत्येक प्राणी की स्वयं की अपनी सत्ता होती है अस्त्तिव हेाता है। अतः सभी अपनी मर्यादाओं का पालन करें। भावना एवं विवेक का ध्यान रख कर चारों तरफ बिखरी विशाल जीव सृष्टि को हम बचा सकते हैं। अतः महावीर ने कहा-
जयं चरे, जयं चिट्ठेे, जयमासे-अयंसुए
जयं भुजन्तो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई

अर्थात् यतना से चले, यतना से खड़े हो यतना से बैठे, यतना से भोजन, भाषण करने से पाप कर्म का बन्ध नहीं हेाता। इनके द्वारा हम हमारे दैनिक जीवन व्यवहार में उपयोगी वस्तुओं का यतना का ध्यान रख कर हिंसा से बच सकते है तथा पर्यावरण की सुरक्षा करते हुए जीवों के अस्त्तिव को भी बचा सकते हैं।

महावीर का भेद विज्ञान:- मानसिक संतापों, आत्म सन्तुष्ठि, समताभाव तथा अनुकूलता-प्रतिकूलता सुख-दुःख जीवन से जुड़े हुए हैं। इनका उतार चढ़ाव आता रहता है लेकिन यदि जो भेद विज्ञान को समझता है, तो इन परिस्थितियों के हेाते हुए भी वह समाधान प्राप्त कर लेता है, क्योंकि भेद विज्ञान एक ऐसा रक्षा कवच है जो व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान कर स्वस्थ-आत्मस्थ बनाये रखता है। व्यक्ति प्रतिकूलताओं में दुःखी तथा अनुकूलता में सुख का अनुभव करता है। लेकिन भेद विज्ञान कहता है ज्ञाता दृष्टा भाव, समता भाव से इन्हें देखों जैसे जैसे भेद विज्ञान सधता जाता है समस्याएं स्वतः समाहित और प्रतिकूलताएं पराजित होती चली जाती है। भेद विज्ञान का अर्थ है महमान की तरह समागत परिस्थितियों-प्रतिकूलताओं और पर पदार्थें से आत्मा की भिन्नता का अवबोध पर से स्व का समारोप ही पीड़ा का हेतु बनता है। जड़ एवं चेतन में भेद करना, ही भेद विज्ञान है, जीव कभी अजीव (जड़) नहीं बन सकता तथा अजीव (जड़) कभी जीव नहीं बन सकता। शरीर एवं आत्मा अलग-अलग हैं। जबकि हम जीव में अजीव को तथा अजीव में जीव को मान लेते हैं। जड़ एवं चेतन का भेद नहीं करते इसलिए कई प्रतिकूलताएं विकसित हो जाती हैं महावीर ने कहा “यह भी नहीं रहेगा.......। “अर्थात् जड़ शास्वत नहीं हैं। केवल चेतन्य शास्वत है इसलिए हमें जड की नहीं चैतन्य की चिन्ता करनी है। जबकि हम जड़ की और आकर्षित होते है उसी को महत्व देते है। महावीर के कानों में कीलें ठोक दी फिर भी समभाव में रहे उन्हेांने कहा “मैं शरीर नहीं विशुद्ध चेतन हूं दर्द समागत है, न सदा साथ था न सदा रहोग।“ इस भेद विज्ञान की अनुप्रेक्षा साधना से दर्द की अनुभूति से वे परे हो गये दुःख एवं पीड़ा होते हुए भी समता भाव से सहन कर गये। इस प्रकार भेद विज्ञान अनेक समस्याओं मानसिक विकारों का समाधान करता है।

आहार चर्या:- प्रभु महावीर ने जीवन को स्वस्थ रखने के लिए अभक्ष भोजन एवं तामसिक भोजन का त्याग बताया, अभक्ष भोजन हिंसा को तो बढ़ता ही है साथ में व्यक्ति के मानसिक विचारों को क्रूरता मयी बनाता है जिससे उसकी प्रवृतियां विकृत हो जाती है। इसके लिए महावीर ने सात्विक भोजन को महत्वपूर्ण स्थान दिया क्योंकि “जैसा खाए अन्न वैसा होवे मन“ चरितार्थ करता है।

प्रभु महावीर ने अभक्ष भोजन के साथ साथ रात्री भोजन को भी निषेध किया है। जिसका मूल कारण जीव हिंसा से सुरक्षा तथा वैज्ञानिक आधार रात्री निद्रा एवं भोजन करने में तीन चार घन्टे का अन्तराल रखना है। जिससे भोजन सोने से पूर्व अच्छी तरह पच सके। जिसमें शारीर स्वस्थ रह सके। शुद्ध एवं शाकाहारी भोजन जीवन की निर्मलता, सरलता तथा अच्छे विचारों को पोषित करता है। इसलिए हमारी आहार चर्या का जीवन में गहरा प्रभाव पड़ता है।

इस प्रकार स्पष्ट है महावीर जीता जागता शास्त्र है, जिसको जितना अपने जीवन में उतारो उतना ही जीवन सिद्धान्तों की और मुड़ जाता है। महावीर मात्र एक नाम नहीं, मंत्र उच्चारण नहीं उसका सम्बन्ध तो आचरण से है। महावीर एक शब्द मात्र नहीं व्यापक एवं जीवन पर्याय है, वे मनवता के मसिहा है। महावीर ज्ञान का अथाह समुद्र है, प्रासंगिक, वैज्ञानिक एवं जीवन विज्ञान को पोषित करने वाला है।

पदमचन्द गांधी, भोपाल

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