वाणी अन्तस्थ से उठने वाले भावों एवं विचारों के द्वारा स्वरों के रूप में अभिव्यक्त हेती है जिसमें मनोअभिव्यक्ति, भावाभिव्यक्ति, वैचारिक अभिव्यक्ति, काल्पनिक अभिव्यक्ति, अनुभवों की अभिव्यक्ति आदि विभिन्न आयाम समाविष्ट होते है। जिन्हें बोल कर, लिखकर, गा कर, कविता के रूप में, अभिनय के रूप में या फिर भाषा के रूप में प्रकट की जाती है। जब हम किसी शब्द का उच्चारण करते है तो उसका प्रभाव न केवल व्यक्ति के गुप्त मन पर पड़ता है, अपितु सारा संसार भी इससे प्रभावित होता है क्योंकि शब्द कभी लुप्त नहीं होता है। शब्द, भाषा एवं वाणी ही है जिनसे समाज का वातावरण आनन्द और उल्लासपूर्ण बनता है। हमारे शब्द, हमारी भाषा हमारे अन्तकरण पर अमिट छाप छोड़ते है जिससे स्वभाव और चरित्र का निर्माण होता है। भाषा की समृद्धि उसके विचार और ऊर्जा से होती है, भाषा की ताकत की कसौटी उसमें उपलब्ध समृद्ध साहित्य, सशक्त सम्प्रेषण क्षमता, ज्ञान विज्ञान, तकनीक में अभिव्यक्ति की क्षमता उसकी ग्रहणशीलता तथा उसकी प्रभावकारिता को प्रकट करती है।
हमारे व्यक्तित्व का आइना यदि है तो वह हमारे द्वारा बोली जाने वाली वाणी है, भाषा है। मानव शरीर के अंग सभी के समान होते है। लेकिन उसकी अपनी वाणी, अपनी भाषा से ही पहचान होती है क्योकि वाणी मनुष्य के मन का दर्पण है, वाणी से इस बात का परिचय मिल जाता है कि व्यक्ति का मन कैसा है, उसका व्यक्तित्व कैसा है, उसका स्तर किस तरह का है। इन सबको ध्यान में रखते हुए ही हम अपनी वाणी एवं भाषा को मधुर एवं संयमित रख कर अपने व्यक्तित्व को श्रेष्ठ बना सकते है। साधक किस तरह की भाषा एवं शब्दों का प्रयोग करे इस पर वाणी संयम निर्भर है। वाणी एक अमूल्य चिन्तामणी रत्न है अतः इसका उपयोग अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना चाहिए क्योंकि जबान से निकला हुआ शब्द पुनः लौटकर नहीं आता है इसलिए “तोल तोल कर बोलना“ ही श्रेष्ठ होता है। वाणी का सम्यक प्रयोग मानव को गौरवगिरि के उत्तम श्रृंग पर आरूढ़ कर सकता है तो उसका दुरूपयोग पतन के गहरे गर्त में गिरने का कारण भूत है। वचन एवं भाषा संयम की महत्ता इस लिए भी बढ़ जाती है कि यह साधक के जीवन में “गति“ के अतिरिक्त दूसरी परिहार्य क्रिया “भाषा“ है। मौन रहना गुप्ति है और विवेकपूर्ण सत्य, हित, मित एवं असंदिग्ध भाषण करना समिति है अर्थात् वाणी का वही प्रयोग समिति है संयम है जो सावद्य और निवद्य के विवेक से युक्त हेती है। जिसमें सावद्य एवं अनवद्य का विवेक नहीं हेता उसका बोलना भी उचित नहीं हे। दशवैकालिक सूत्र में हरिभद्रीय टीका में स्पष्ट किया हैः-
सावज्जंण वज्जाणं वयणाणं जो ण यावइ विसेसं
वोत्तुपि तस्स ण खभं किमंग षुण देसणं काऊ।
वाणी का प्रयोग एक विशिष्ट धर्म कला है और आचार का प्रमुख अंग है। अतः अहिंसक साधक को बोलने से पहले और बोलते समय किन किन बातों का ध्यान रखना, क्या बोलना, कितना बोलना, कैसे बोलना आदि का निरूपण एवं निर्देश शास्त्रकारों ने भाषा समिति के अन्तर्गत किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र के माध्यम से बताया-
मुहुरं निउणं थोवं कज्जावडियं अगव्विय मत्तुच्छं।
पुव्विमइसंकलियं मणंति जं धम्म सं जुत्तं।।
अर्थात् जो व्यक्ति मधुर हो, निपुण हो, अर्थात हितकारी हो, परिमित हो, प्रयोजन होने पर ही बोले गये हो जो गर्वरहित हो, तुच्छ न हो, बुद्धि से विचार कर बोले गये हो और जो धर्ममय हो, ऐसे वचन को बोलना भाषा समिति है वाणी संयम है इन्हीं पर चलकर साधक अपना व्यक्तित्व संवारता है।
दा.का.सू. अ.7 गाथा 54-57 में भाषा और वाक्य शुद्धि विषय में अति सूक्ष्मता के साथ वर्णन स्पष्ट करते हुए बताया कि साधक सावद्य का अनुमोदन करने वाली अवधारिणी (संदिग्ध अर्थ के विषय में असंदिग्ध) पर उपघात करने वाली भाषा क्रोध, लोभ, भय या हास्यवश न बोले। आचारांग के सूत्रकारों के ने बताया कि क्रोध, मान, माया, लोभ का परित्याग करते हुए संयमित भाषा का प्रयोग करना चाहिए उसे बहुत शीघ्रता से नहीं बोलना चाहिए क्योंकि बिना सोचे समझे बोलने से अनिष्ट एवं पाप की सम्भावनाएं रहती है उसे विचार कर एकान्त निवद्य वचन बोलना चाहिए, विवेकपूर्ण भाषा का उपयोग करना चाहिए। वाणी के विवेक पूर्ण उपयोग से साधक ऊंचाईयों को प्राप्त करता है।
वाणी मानव जीवन को महिमा और गरिमा समन्वित करती है और वाणी ही मनुष्य को उसके जीवन की महिमा और गरिमा से विहीन कर देती है। वाणी की कुशलता हमारे जीवन में सफलता का पथ प्रदर्शित करती है तथा इसमें निहित दोषों, अविवेकपूर्ण भाषा, मधुरता का अभाव से सफलता असफलता के गहरे अंधकार में समा जाती है। इसलिए वाणी सदैव मीठी एवं हितकारी होनी चाहिए। तुलसीदास जी ने कहा “तुलसी मीठे वचन से सुख उपजत चहुं ओर। वशीकरण एक मंत्र है तजदे वचन कठोर।।“ इस प्रकार सत्य भी हमें कड़वा एवं चुभने वाला नहीं बोलना चाहिए। वाणी के वचन शीतल करने वाले होने चाहिए। जैसे- “कागा काको धन हरे, कोमल काको देय, मीठी वाणी बोल कर जग बस में कर लेय।“ इस प्रकार मीठे वचन बोल कर सारे जग को अपने वश में किया जा सकता है तथा लोगों के हृदय में स्थान पाया जा सकता है। जिसकी वाणी में सरस्वती बसती है वह घर स्वर्ग हेता है। रिस्तों में मिठास हेती है उन घरों में बरकत हेती है। जो व्यक्ति अपनी वाणी चातुर्य को पहचानते है, अपनी वाणी में मिठास घोलते है वे वाणी के जादूगर हेते हैं क्योंकि वाणी में वो ताकत होती है जो व्यक्ति को हर जगह सम्मान दिलाती है। वाणी में वो शक्ति होती है जो सबके दिलों को प्रिय बनाती है। मनुष्य का सारा चिन्तन वाणी पर आधारित हेता है। दर्शनशास्त्र भी विचारों की प्रस्तुति उत्तम वाणी के माध्यम से करने की बात कहता है। वाणी की मधुरता ही अमृत घोलती है। जबकि वाणी की कटुता के जहर ने कई घरों को तोड़ा है कइयों के जीवन को नष्ट किया है कइयों के सम्बन्ध किये तथा अपनों से पराया बनाया।
अतः स्पष्ट है कि व्यक्ति की वाणी ही उसकी पहचान है, वाणी जीवन का स्वर, सौन्दर्य एवं संगीत है। वाणी ही अन्तर की आत्मा और बाहर के जगत का सेतु है। ईश्वर ने यह अनुपम उपहार केवल मात्र मनुष्य को ही दिया है जिससे उसकी ओजस्विता और तेजस्विता से उसका व्यक्तित्व चमकता है। वाणी ही मनुष्य के चिन्तन का उद्गम है और साधन भी। श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय 17 के श्लोक 15 में कहा गया है कि -
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं चयत।
स्वाध्यायाम्भसनं चैव वाऽमयं तप उच्चते।।
अर्थात उद्ग्वेद न करने वाला, प्रिय, हितकर और यर्थात् भाषण (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम यर्थात भाषण) है तथा स्वाध्याय शास्त्र अध्ययन एवं आध्यात्म में विचरण करता है वही वाणी सम्बन्धि तप है। वाणी का मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है यदि सकारात्मक विचार रखता है तो अच्छे परिणाम और सकारात्मक उर्जा प्राप्त करता है। वाणी से मित्रता होती है और वाणी से ही वैर एवं शत्रुता भी। मैत्रीभाव के लिए कहा गया है कि “अमृतं में आसनं“ अर्थात मेरी वाणी में अमृत हो इसे सम्भल कर एवं मधुर रूप से बोलनी चाहिए। कम एवं सुन्दर शब्दों में कही गयी बात न सिर्फ व्यक्ति के चिन्तन को सम्पूर्ण करती है बल्कि विचारों को प्रभावशाली बनाती है। अतः हमारे विचार शुद्ध है, हमारे भाव शुद्ध है हमारी वाणी में मधुरता है तो हमारी क्रिया भी अच्छी होगी क्योंकि व्यक्ति जैसा सोचता है वैसा ही करता है। अतः हमारी वाणी हमारी भाषा हमे पहचान देती है परिचय करती है तथा हमें एक आइना दिखाती है।
-पदमचन्द गांधी, भोपाल
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