Subscribe Us

बहू की मांग


एक मित्र ने घटना सुनाई कि एक बार उनके एक निकटतम मित्र ने घर आकर दुखी स्वर में कहा कि उनकी बहू घर छोड़ कर अपने मायके चली गयी, जो कि उसी शहर में था, जिसमें कि ससुराल थी।
मित्र के मित्र ने पूछा कि बहू ससुराल छोड़ कर क्यों चली गयी, क्या उसके साथ लड़ाई झगड़ा या मारपीट की गयी थी, वह चली क्यों गयी, उसकी कोई वज़ह तो होगी, आखिर बहू आपसे क्या चाहती थी ?"
तब उनके मित्र ने कहा कि बहू चाहती थी कि जिस मकान में हम रहते हैं, उस मकान जो कि मेरे अपने नाम पर है ,मैं उसके नाम से कर दूं।"
"तब तुमने क्या ज़वाब दिया?" मित्र के मित्र ने प्रति प्रश्न किया।
मैंने कुछ नहीं कहा। चुप ही रहा। यदि मैं अपना मकान बहू के नाम कर दूंगा तो बहू, बेटे को बरग़ला कर मुझे बुढ़ापे में वृद्धाश्रम भेज देगी।
"अच्छा किया जो तुमने बहू के नाम मकान नहीं किया और आगे से ध्यान रखना... बहू के नाम से मकान करना भी नहीं, चाहे कुछ भी हो जाए? " मेरे मित्र ने उनके मित्र से कहा।
इस घटना के बाद कुछ महीनों तक दोनों मित्र आपस में नहीं मिले।
फिर एक दिन संयोगवश सब्जी मंडी में सब्जी भाजी खरीदते हुए दोनों मित्र मिल गये। दोनों में बातचीत हुई। मित्र ने पूछा - "क्या हुआ बहू के प्रकरण में ?"
मित्र के मित्र ने कहा - "दो दिन तक मैंने चिंतन मनन किया और मुझे एक तरक़ीब सूझी। मुझे अपनी नौकरी के रिटायमेंट के बाद जो राशि मिली थी। उस राशि से मैंने अपने मकान में जो कि पहले एक ही मंजिल था, जिसमें हम सब यानी बहू बेटे सभी साथ रहते थे। उस मकान में मैंने एक मंजिल के ऊपर दूसरी मंजिल बना ली। मैं ऊपर की मंज़िल में शिफ्ट हो गया और बेटे को नीचे की मंजिल सौंप दी। कुछ दिनों बाद बहू को इस बात का पता चला तो वह वापस ससुराल आ गयी और दूसरी मंज़िल पर बेटे के साथ रहने लग गयी। बहू को मकान चाहिए था, उसे मकान मिल गया। अब बहू को कोई परेशानी नहीं थी तो बेटे को भी नहीं। दोनों खुश थे तो मैं भी निश्चिंत हो गया। "

-डॉ रमेशचन्द्र,इंदौर (म.प्र.)

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ