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तेरे हिस्से की चाँदनी (कविता)



तेरे हिस्से की चाँदनी,गर होती मैं इक बार।

नील गगन ले जाती तुझको,
अपने पंख पसार।
या कहीं पर बैठ किनारे,
श्वेत क्षीर सागर के तट।
चाँदनी भर लेती मुट्ठी में,
सारी गगन उतार।
तेरे हिस्से की चाँदनी, गर होती मैं इक बार।

जल तरंग की रागिनी,
लहरों से सुन लेती मैं।
सपने तेरे प्रेम के ,
चुपके से बुन लेती मैं।
आनंदित हो जाती मैं,
स्वच्छ चाँदनी छूती जब।
आलौकित होती आभा से,
किरणें जब बरसाता नभ।
स्पंदित हो जाता ह्रदय,
तेरा पाकर प्रेम अपार।
जैसे चातक पपीहा करता,
स्वाति बूँद को स्वीकार
तेरे हिस्से की चाँदनी,गर होती मैं इक बार।

छूकर मेरे अंतर्मन को,
तुम कर देना शृंगार मेरा।
प्रेम अपना मुझपे लुटाकर,
बन जाना स्वभाव मेरा।
हर प्रीत रंग में मुझको रंगके,
बावरिया कर देना तुम।
रजनीगंधा सी मैं महकूँ,
ऐसी सुगंध भर देना तुम।
स्वच्छ चाँदनी नैनों से जब,
उतरे मेरे दिल के द्वार।
बाहों में तुम मुझको भरके,
अधरों से करना शृंगार।
तेरे हिस्से की चाँदनी,गर होती मैं इक बार।

-अम्बिका गर्ग 'अमृता',कालापीपल (मध्यप्रदेश)

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