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पहरा और चोरी (लघुकथा)



"क्या हुआ? वाशरुम जाना है? लाइट जला दूँ?"
सुनंदा को सभी प्रश्नों का एक ही जवाब मिला।
"थोड़ी देर बैठकर जाऊंगा ।तुम सो जाओ। यह तुम्ही ने बताया था न कि एकदम उठकर चलने मत लग जाया करो।"
सुनंदा की रातें प्रायः इसी तरह कटती थी और दिन नौकरी, घर के कामों और सुरेश के आवाज पर बीन बजने पर साँप की तरह नाचने में गुजरता था।
रात को कभी सुनंदा वाशरूम जाने को उठती, पता नहीं कैसे सुरेश को इसका पता लग जाता।
"सुनंदा। सुन्नु। तुम कहाँ हो? वाशरूम में हो क्या? "
सुनंदा की
'हुँ'' सुनकर वह बोला..
"अरे यार। मुझे जाना था। रुक नहीं पाऊँगा। खैर जल्दी निकलना"।
रात्रि में प्रायः ऐसे ही संवाद चलते रहते।
सुनंदा इस तरह की पहररेदारी से उकता गई थी।
सुरेश के खर्राटों से सुनंदा की नींद वैसे भी टूटती रहती।
थोड़ी देर बाद जब सुरेश सो गया और वह भी सोने का उपक्रम करने लगी।उसे विचार आया क्यों न मैं कल ऑफिस में बॉस को देने वाली रिपोर्ट फेयर कर लूँ?
सुरेश का मस्तिष्क एक पहरेदार की तरह सुनंदा की उपस्थिति पर नजर रखता था,क्योकि वह उसे घर पर रहते हुए अपने सामने देखना चाहता था। वह उसे इतने परिश्रम के बाद आराम करते देखना चाहता था।
उसने पलंग पर अपने स्थान पर लम्बाई में दो तकिए लगातार उन पर चादर ढक दी और वह बगल वाले कमरे में जाकर अपना काम करने लगी। आखिरी दो वाक्य फेयर कर ही रही थी कि उसे लगा जैसे कोई उसके पीछे खड़ा है। पलटकर देखा तो अवाक् रह गई।
"अरी पगली अपनी तबियत खराब करने पर क्यों तुली हो?तुम बीमार पड़ गई तो मेरा क्या होगा? चलो उठो सो जाओ सुबह भी जल्दी उठना रहता है तुम्हें।"
सुनंदा का चेहरा बता रहा था,. जैसे उसकी चोरी पकड़ ली गई है।

-डॉ चंद्रा सायता, इंदौर


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