वर्तमान समय में युवाओं को अध्यात्म से जोड़ना आवश्यक है। शिक्षा, रोजगार, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में वे अध्यात्म से जुड़कर प्रगति कर सकते हैं। अध्यात्म का अर्थ है आत्मा का विकास। आत्मा से जुड़कर आत्मा को जानना। ध्यान और योग के माध्यम से हम अध्यात्म से जुड़ सकते हैं। इसका निरंतर अभ्यास कर सकते हैं। इस साधना को करते हुए एक साधक का लक्ष्य रहता है - आत्म साक्षात्कार। साधनारत साधकों के लिए यही पूर्णता है।
प्राचीन काल से भारतवर्ष में गुरुकुलों में जो शिक्षा दी जाती थी, उसमें अन्य विषयों के साथ-साथ विभिन्न कलाओं से जुड़ना, सेवा संस्कार, योग और ध्यान जैसे महत्वपूर्ण विषय भी शामिल रहते थे। बाद में यह गुरुकुल बंद होते गए। विकास को भौतिकता से जोड़ दिया गया। शिक्षण संस्थानों में भारतीय संस्कृति से जुड़े विषयों को धीरे-धीरे अलग कर दिया गया। शैक्षणिक पाठयक्रमों में अनेक विसंगतियों के कारण युवाओं के समक्ष दिशाहीनता की स्थिति पैदा हुई।
हम देख रहे हैं कि शिक्षित होने के बाद जब युवाओं को रोजगार या नौकरी नहीं मिलती तो उनमें निराशा होती है। कई बार प्रयास करने के बाद जब उन्हें सफ़लता नहीं मिलती तो वे अपराध के मार्ग पर चलने लगते हैं या आत्महत्या जैसे गंभीर कदम उठा लेते हैं। ऐसी कठिन परिस्थिति में उन्हें उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। हमारे युवा अध्यात्म से जुड़ेंगे तो उनकी समस्याओं का उन्हें समाधान मिल सकता है।
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में अब जनचेतना आई है। नई शिक्षा नीति आने के बाद शिक्षण संस्थानों का स्वरूप बदल रहा है। युवाओं ने अध्यात्म के क्षेत्र में भी रुचि दिखाई है । अच्छी बात है कि उनका मन अब इस क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है । योग भारत की देन है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग को मान्यता मिली है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 11 दिसंबर 2014 को हर वर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस मनाए जाने की घोषणा की। इसके बाद दुनिया में योग का महत्व अधिक व्यापक हुआ। भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए योग का महत्व प्रतिपादित किया। श्रीकृष्ण योगेश्वर कहे जाते हैं। भगवान शिव आदियोगी हैं । उन्होंने ऋषियों को योग की शिक्षा दी। महर्षि पतंजलि ने योग शास्त्र की रचनाकर जनसाधारण के लिए इसे सुगम और सुलभ बनाया।
वैदिक शिक्षा में आरोग्य, दीर्घायु होने की भावना, अध्यात्म मार्ग से जुड़ना, ईश्वर आराधना, अनासक्ति भावना तथा विश्व कल्याण की भावना रखने पर बल दिया गया है। इसमें मानव कल्याण के साथ-साथ प्रकृति मित्र होने की भावना का भी वर्णन है।
मनु कहते हैं-
शब्द: स्पर्शश्च रूपञ्च रसो गंधश्च पंचम: ।
वेदादेव प्रसूयंते प्रसूति - गुण- कर्मत:।।
मनु स्मृति 12.18
मनु कहते हैं- वेद से ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध उत्पन्न होते हैं। यह पांच तत्व आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी के ही रूप है। इन पांच तत्वों से ही सृष्टि बनी है, इसलिए वेद को ब्रह्म कहना उचित है। एतरेय सूत्र के अनुसार चित् चेतन है। प्राण ऊर्जा है। वाक पदार्थ है। पदार्थ से ऊर्जा सूक्ष्म है। ऊर्जा से चेतन सूक्ष्म है। सूक्ष्म का नियंत्रण स्थूल में रहता है। मंत्र से आह्वान किया जाए तो देवता प्रकट हो जाते हैं। इसके लिए कामना, इच्छा, संकल्प और श्रद्धा जरूरी है।
वेद, पुराण और उपनिषद् राष्ट्र की अनमोल धरोहर है। युवाओं को इनका स्वाध्याय करना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं में ये ग्रन्थ उपलब्ध कराना चाहिए। इन ग्रंथों के सार अंशों का छोटे छोटे भागों में प्रकाशन होना चाहिए। गीताप्रेस गोरखपुर और गायत्री परिवार की तरह अन्य संस्थाओं को इस पुनीत कार्य के लिए आगे आने की जरूरत है।
युवा अध्यात्म से जुड़ते हैं तो उनका शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास संभव हो सकेगा। यह सत्य है कि यम और नियम का पालन करने वाला मनुष्य संस्कारवान और अनुशासित रहता है। ऐसे स्वस्थ व्यक्ति देश के अच्छे नागरिक बनकर लोक कल्याण का ध्येय लेकर राष्ट्र की सेवा करते हैं। अतः युवाओं को अध्यात्म से जोड़ना हम सभी का कर्तव्य है।
- श्रीराम माहेश्वरी
(लेखक साहित्यकार एवं 'मानव जीवन और ध्यान' पुस्तक के लेखक हैं )
srmaheshwaribhopal@gmail.com
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