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समकालीन कविता में यथार्थवाद (शोध-पत्र)

डॉ. माया दुबे
कविता में कल्पना तत्व की प्रधानता होती है, कवि एक कल्पनाशील प्राणी है, प्रजापति की तरह वह स्वयं की कल्पना लोक का निर्माण करता है| शब्द मानव ध्वनियों का पहला संगठन और भाषा की पहली ईकाई है, शब्द का अपना जादू होता है, इसमें संदेह नहीं है| कवि शब्द रूपी ईंटों से काव्य की इमारत खड़ा करता है| मानव की भाषा उसके सार्थक क्रिया-कलाप की उपज और सहायक साथ-साथ है| कविता में मानव का सम्पूर्ण अस्तित्व व्यक्त होता है इसलिये कविता मानवता का अभेद्य दुर्ग कहलाती है| कविता का तेवर समय के साथ बदलता रहा है, आदिम कवि, ऋषि है, मुनि है, स्वयंभू: है, परिभू: है- “कवि: मनीषी, स्वयंभू” परिभू: वह मन की आँखों से विश्व को देखता है, विस्तृत दायरे में देखता है, लेकिन समय के साथ कविता भी बदली, रामायण, महाभारत, पुराणों के बाद, एक लम्बे समय के अंतराल के बाद हिन्दी की कविताओं में आदिकाल, भक्तिकाल रीति, छायावाद, आधुनिक वाद, नयी कविता, समकालीन कविता, यथार्थवाद इत्यादि दौर आया। 
आजकल जिसे समकालीन कविता कहा जाता है, वह मोटे तौर पर 1970 के बाद आया।


समकालीन कविता की प्रगतिशील धारा को कुछ लोग धूमिल की विद्राही कविता और 1967 नक्सलवादी विद्रोह से जोड़ कर देखते हैं| साहोत्तरी कविता की उपज है, विद्रोही कविता और अकविता| समाज से बहार खड़े होकर समाज पर आक्रमण, विद्रोही कविता का यह मूल स्वभाव था| जहाँ तक समकालीन कविता में यथार्थवाद का प्रश्न है तो इस समय कविता में कल्पना दूर हो गयी, उसका स्थान यथार्थ निरूपण ने ले लिया| भिखारी कृषक, सामाजिक अस्त-व्यस्तता सभी समकालीन कविता के स्वर में स्वर मिलाने लगे| मानव निर्मित आपदा कालाहांडी पर वसंत ने लिखा है-
“कालाहाँडी एक स्वप्न है,
जो आँखों से ज्यादा दाँतों पर हावी हो जाता है,
और दाँतों से ज्यादा पेट पर,
दिल्ली खुश है, और भी बहुत नगर खुश हैं,
जाहिर है, इस खुशहाली के बीच,
कालाहाँडी की खुशहाली मायने नहीं रखती| (१)


उड़ीसा के इस भयानक दुर्भिक्ष पर ये सबसे अच्छी पंक्तियाँ हैं| आँख, दाँत और पेट के माध्यम से ‘कालाहाँडी’ का ‘स्वप्न’ अर्थ बदलता चलता है, दृश्य अत्यंत भयावह है, पर आँखों से ज्यादा दाँतों पर हावी है, जिन आँखों में आँसू होना चाहिए, उनमे ख़ुशी है, संवेदनहीनता के वातावरण में यह स्वप्न दाँतों पर हावी है|
प्रकृति और मनुष्य बहुमुखी सम्बन्ध की जटिलता पूरी सच्चाई से बड़ी नारायण की कविता में उभरती है| यथार्थवादी जीवन की सत्य अनुभूति है, कविता में भी कल्पना नहीं बल्कि भोगा हुआ सत्य साक्षात्कार कराता है, मुक्तिबोध कहते हैं-
पिस गया वह भीतरी
और बाहरी दो पाटों के बीच,
ऐसी ट्रेजडी है नीच| (3)
आज के दौर में शान्ति सबसे आवश्यक है, विश्व- पटल पर हो रहे हिंसा, युद्ध से दुखी, दिविक रमेश कहते हैं –
“युद्ध से घायल मानवता
आज भी सिसक रही,
इधर शांतिदूत बेचारे,
नहीं समझ पाए,
कि यह प्रेतबाधा
कुछ लोगो को रास आ गई,
तब इजराइल हो या आबू
पकिस्तान हो या भारत
कोई फर्क नहीं पड़ता
जब वियतनाम शॉक हो गया है|(४)


इसी प्रकार राजनीति में यथार्थ बोध को रेखांकित करते कई कवियों ने समकालीन कविता पर प्रकाश डाला है-
“गरीबी हटाओ सुनते ही
उन्होंने एक बूढ़े आदमी को पकड़ लिया
जो उधर से गुजर रहा था
और उसकी झुर्रियां गिनने लगे| (५)
इस तरह समकालीन कविता में कवि कल्पनालोक में नहीं विचरता बल्कि यथार्थ के धरातल पर खड़ा रहता है|
इसी प्रकार एकांत श्रीवास्तव की कविता ‘कविता की जरूरत’ दृष्टव्य है-
थोड़ी सी आग गोरसी की
थोड़ा सा धुँआ
थोड़ा सा जल आँखों का
मुझे दो कविता लिखने के लिए|
ये द्वंद्व कविता का आत्म तत्व है| ये कवी यद्यपि नागार्जुन या केदार की कविताओं की तरह ताकत नहीं देते, फॉर भी जीवन के यथार्थ को उद्घाटित करते हैं| श्याम विमल की कविता देखने योग्य है-
“खेतों से उठता आता हुआ,
उभरी हड्डियों वाला
धूसर देहाती पंजा
ऊंची पक्की दीवारों की जड़ को,
डराती से घेरता है,
या किस लिए है? कहता हुआ
वह पौध की तरह उसको देखता है|” (६)


समकालीन कविता की यही विशेषता उसे अलग करती है, जीवन के यथार्थ सरोकारों से जोड़ती है, सच का अनुसन्धान करते है| नये जीवन-मूल्यों का सृजन भी हो रहा, निराला ने तो भावी भारत का चित्र भी खींच दिया, बदलते सामाजिक सरोकारों का सटीक वर्णन किया है, परिवर्तन जीवन का शाश्वत सत्य है, इस कविता में देखा जा सकता है-
“आज जमीदारों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे अँधेरे का ताला|
सारी संपत्ति देश की होगी,
जनता जातीय वेश की होगी
वाद से विवाद यह ठने
काँटा कांटे से कढ़ाओ|(७)


यहाँ कवी निराला अँधेरे का ताला उन्ही लोगों से खुलवा रहे, जिन्हें आचार्य भरत ने श्रम से थका-हारा, पीड़ित और दू:खी बताया है| आने वाले समय का कवि पहले से ऐलान कर रहा| बदलते समय के दौर में आने वाले समाज की सूरत क्या होगी निराला जी कल्पना करते हैं|
इस प्रकार चेतना, संवेदना इन कविताओं के केंद्र में हैं| शायद इसीलिए प्रायः कवियों ने गेंहूँ और चावल की कमी से लेकर्म, राजनीतिज्ञों की साजिश तक पर ध्यान खीचा है-
“गेंहूँ कम है
चावल कम है
सुना है अब पत्थर भी
खाये जाने लगे हैं|
भूखमरी की इस लम्बी दौड़ मे,
देश में विघटन पैदा करता है,
राजनीतिज्ञों से के कान बहरे,
और आँखें पत्थर की होती हैं|”(८)


काव्य चिंतन में इस तरह की सोच समकालीन कविता की विशेषता रही है| समकालीन कविता यथार्थ की सत्य अभिव्यक्ति है, उस पर कल्पना का आवरण नहीं है| ललित कुमार श्रीवास्तव कहते हैं-
“योजनाएँ कागज़ पर तैरती हैं
असेम्बली व्यायामशाला हो गयी है|
और हमसब दलदल में फँसे,
बजरंगबली की जय बोल रहे |”(९)
सत्य का बेवाक उद्घाटन इस काल की कविताओं में सर्वत्र दिखती है| अमृता भारती की कविता प्रस्तुत है-
"सिग्नल हो चूका था,
और उसके अन्दर
रेल की पटरियाँ
बिछ चुकी थीं|
आँधी ने वघनखे पहन लिये थे,
आखिर वे मुझे मिल ही गए,
जिन्हें ईधन बनाना था|" (१०)


अमृता भारती की कविता में यथार्थ का आत्मगत आलोक है, विअवस्था की जटिल संरचना का दिग्दर्शन है| राजनीति में साम, दाम, दंड, भेद का बोलबाला है, समकालीन कवियों ने इसे भी उधाड़ा है-
‘वह जानता है कि चुनाव
लोगो की राय का प्रतीक नहीं
धन और धमकी का अँगारा है| (११)
इस प्रकार समकालीन कविता यथार्थबोध की कविता है, जीवन के खुरदुरे धरातल पर चलती है, वहीँ उसका ऑक्सीजन है, बदलते जीवन- सन्दर्भ, समकालीन कविता में सर्वत्र व्यक्त हैं| जीवन की कठोर वास्तविकता है, न कि कल्पना की उड़ान|


सन्दर्भ सूचि-
उत्तर आधुनिकता कुलेंतावाद और समकालीन कविता, लेखक- अजय तिवारी, पृ. 290 |
समकालीन कविता ... पृ. 314
समकालीन हिन्दी कविता पर भारतीय राजनीति का प्रभाव, डॉ. सुनीता तिवारी, पृ.-116
रास्ते के बीच, दिविक रमेश, पृ.-14
हिन्दी कविता का समकालीन परिदृश्य, डॉ. हरदयाल पृ.- 18
कविता का यथार्थ, पृ. 43
समकालीन कविता और मूल्य दृष्टि, पृ. 33
ट्रेजिक सेंस ऑफ लाइफ, गिरधर गोपाल श्रीवास्तव, पृ. 20
ललित कुमार श्रीवास्तव, समकालीन हि. कविता, पृ. 194
‘और भी कविताएँ’, अमृता भारती, पृ. 22
‘दीर्घा’ सौमित्र मोहन, अंक 26, पृ. 33







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